इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में मंदिरों, मस्जिदों, महलों और किलों की महान स्थापत्य परंपरा रही है । यहां तक कि जब भी हम भारतीय वास्तुकला के संदर्भ में सोचते हैं, हमारे मस्तिष्क में ताजमहल, फ़तेहपुर सीकरी और दक्षिण भारत के मंदिरों का चित्र बन जाता है ।
ऐसे में हमारे मस्तिष्क में जो सवाल उठता है, वह है –
क्या आज हमारे पास आधुनिक वास्तुकला के प्रतिनिधि के रूप में ऐसा कुछ है जिसकी तुलना हम अपनी पुरानी इमारतों से कर सकें । या फिर साधारण शब्दों में- भारत में आधुनिक वास्तुकला का प्रतिनिधित्व क्या करता है ?
इस प्रश्न का उत्तर दे पाना कठिन है कयोंकि इसके लिए आधुनिक वास्तुकला का भारत के संदर्भ में गहन अध्ययन करना पड़ेगा ।
इस प्रश्न का उत्तर इस बात पर भी निर्भर करता है कि उसके पीछे क्या भावना छिपी है । यदि प्रश्न के पीछे छिपी जिज्ञासा का संबंध स्वतंत्रता पश्चारत किए गए निर्माण की संख्याह से संबंध रखता है तो इसका उत्तीर सांख्यिकीय संख्या ओं की एक प्रभावशाली सूची हो सकता है, निर्माण विज्ञान और तकनीक की एक उत्कृष्ट उपलब्धि ।
लेकिन दूसरी ओर यदि वही सवाल स्वतंत्रता पश्चात नए स्थापत्य और योजना से संबंध रखते हैं जिनके कारण ऐसी इमारतों और शहरों का निर्माण हुआ जो हमारी सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय स्थिति के अनुरूप हैं तो अब तक हमारी उपलब्धियां अधिक प्रभावशाली नहीं रही हैं । लेकिन यदि हम इस तथ्य को ध्यान में रखें कि इस अपेक्षाकृत नए क्षेत्र में हमारे पास उपलब्धि सीमित संसाधनों के चलते सोच-विचारों का बनना पिछली शताब्दी के अंतिम चालीस वर्षों में शुरू हुआ तो यह स्पष्ट है कि हम एक बड़ी उपलब्धि हासिल करने से बस कुछ ही दूर हैं ।
स्वतंत्रता पश्चात के वर्षों में वास्तुकला के क्षेत्र में जो गतिविधियां हुईं, यहां उन पर विवेचन करना अप्रासंगिक नहीं होगा ।
अंग्रेज़ों के आगमन से पूर्व, वास्तुकला पारंपरिक रूप से सामाजिक दृष्टिकोण से पत्थरों से निर्मित उत्कृष्ट स्थापत्य रचनाएं थीं । वास्तुकला में प्रयुक्त सामग्री थी पत्थर, औज़ार, छेनी और हथौड़ा और उद्देश्य था महिमामंडन करना । वहीं दूसरी ओर आम आदमी की रोज़मर्रा की ज़रूरतों को क्रूरतापूर्वक नज़रअंदाज़ कर दिया गया । तब अंग्रेज़ों का आगमन हुआ और उन्होंने पहली प्राथमिक आधुनिक निर्माण ओर योजना भारत में प्रस्तुत की । लेकिन उनका उद्देश्य था अपने संगठन और जनता और भारत जैसे विशाल साम्राज्य को नियंत्रित करने के लिए जो भी आवश्यक हो करना । केवल स्वयं के लिए बनाई गई सैन्य छावनियों और सिविल लाइन्स को छोड़कर उन्होंने आम आदमी की समस्याओं की अनदेखी कर दी । अंग्रेज़ों का इरादा भारतीयों को वास्तुकला और विज्ञान में शिक्षित करना नहीं था । इसके फलस्वरूप अंग्रेज़ों के शासनकाल के दौरान भारतीय बाकी दुनिया की प्रगतिवादी सोच से बिल्कुल कटे हुए थे । इस शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत में जो सबसे महत्वपूर्ण वास्तुकला संबंधी विकास हुआ वह था शाही दिल्ली का निर्माण जहां एक ओर समसामयिक यूरोप के लोग वास्तुकला में अत्यंत प्रगतिवादी सोच रखने लगे थे, वहीं दूसरी ओर सर एडवर्ड लुटयन का निर्माण पुनर्जागरण का उदाहरण है, जो उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में यूरोप में प्रचलित सोच का नतीजा है । दिल्ली के निर्माण के दौरान एक रोचक तथ्य जो सामने आता है वह है ‘बाउहॉस’ जैसी विचारधाराओं में ‘आधुनिक वास्तुकला का ओजस्वी काल चल रहा था’ ।
स्वतंत्रता पश्चात स्थिति में बदलाव आया । समय बदल गया था । धर्म या वास्तुकला में अमरत्व को लेकर राजसी दिलचस्पी के स्थान पर समय की मांग थी उन समस्याओं की ओर ध्यान देने की जिन्हें अब तक अपेक्षित किया गया था । आम आदमी, उसका परिवेश और आवश्यकताएं अब आकर्षण का केंद्र बन गए । कम लागतवाले घरों की मांग अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई । भारत में होने वाले औद्योगिकवाद ने नगर-क्षेत्र और मज़दूरों के लिए नागरिक सुविधाओं को जन्म दिया । ग्रामीण क्षेत्रों से वर्तमान शहरों की ओर पलायन ने भी शहरों की अल्प आवासीय सुविधाओं पर दबाव डाला । इस पूरी समस्या का आयाम तब भी और आज भी हतोत्साहित कर देता है । पूरे देश में 8,37,00,000 मकानों की आवश्यकता है और प्रति वर्ष इसमें 17,000 मकानों की मांग और जुड़ जाती है । इसमें गांवों में मकानों की मांग अलग है । इस गंभीर समस्या का सामना करने के लिए पच्चीस वर्ष पूर्व देश में कुछ ही भारतीय वास्तुकार थे और वस्तुत: न के बराबर योजनाकार । केवल मुंबई में वास्तुकला का एकमात्र स्कूल था । लेकिन यदि कुछ था तो वह था सीमित संसाधनों और तकनीक का इस्तेमाल कर निर्माण करने की इच्छाशक्ति ।
हम आगे बढ़े और अनेक घर और ज़रूरत के अनुसार अनेक इमारतों का निर्माण किया । हर नया प्रयास भारतीय मौसम और समाजिक-आर्थिक स्थितियों के अनुसार इमारतों के निर्माण की दिशा में एक नया कदम था । इस प्रक्रिया में वास्तुकार भी इस बात को समझ गए कि यदि हमें इस समस्या से निपटना है तो हमें निर्माण और योजना के नए तरीकों में कुछ शोध करना होगा । क्योंकि सरकार ही वह एजेंसी थी जिसके पास अधिकतम संसाधन थे इसलिए उसे ही निर्माण की सबसे भारी जि़म्मेदारी का निर्वहन करना था । ऐसे समय में राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीयस्तर पर विभिन्न प्रकार के संगठनों की आवश्यकता महसूस हुई । आज जो संगठन हमारे यहां हैं और जो किसी न किसी तरह से भारत में निर्माण उद्योग के लिए जि़म्मेदार हैं, उनकी सूची निम्नलिखित है :
।. केंद्रीय लोक निर्माण विभाग (के.लो.नि.वि.)
राष्ट्रीय स्तर के इस निकाय में राज्य स्तर पर लोक निर्माण विभाग (लो.नि.वि.) नाम से संबद्ध निकाय है । इस निकाय पर सरकारी कार्यालय की इमारतों, सरकारी कर्मचारियों के लिए आवास सुविधाओं, संस्थागत इमारतों जैसे राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई आई टी) अस्पताल जन सभा भवन, विज्ञान भवन जैसे सम्मेनलन भवन और ‘द जनपथ’ ओर ‘द रंजीत’ जैसे होटलों के निर्माण की जिम्मेदारी हैं । अनेक अन्य इमारतों जैसे पुस्तकालय, अनुसंधान संस्थान, एयरपोर्ट, रेडियो और टी.वी. केन्द्रक, दूरसंचार भवन, कारखानों और वर्कशॉप की जिम्मेदारी भी के.लो.नि.वि. की है ।
के.लो.नि.वि. का कार्य केवल भवन निर्माण तक ही सीमित नहीं है । यह विभाग अभियंता, अन्न भंडारों, गोदाम, पुल और नहरों के निर्माण कार्य तो संभालता है ताकि देश में खाद्यान्न की कमी न हो ।
विभाग की बागवानी शाखा ने पर्यावरण का ध्यान रखते हुए बुद्ध जयंती और मुगल गार्डंस जैसे उद्यान तैयार किए हैं ।
वर्तमान समय में विभाग की गतिविधियों का विस्तार देश की सीमा के परे भी हुआ है । नेपाल में सोनाली-पोखरा सड़क परियोजना पर काम पूरा हो गया है और काबुल में बच्चों के अस्पताल का निर्माण किया गया है । विभाग को मॉरीशस में महात्मा गांधी स्मृति संस्थान के निर्माण के लिए नियुक्त किया गया है ।
2. नगर व ग्राम विकास संगठन
राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर विस्तृत रूप से भूमि के नियोजन के लिए एक योजना संगठन जिम्मेदार है । दूसरे शब्दों में यह संगठन राष्ट्रीय भूमि का विभिन्न कार्यों के लिए निर्धारण करता है जैसे कि नगर, शहर, उद्योग इत्यादि । इस सब में अर्थव्यवस्था, पर्यावरण, दूरसंचार इत्यादि को ध्यान में रखा जाता है ताकि संपूर्ण राष्ट्र का संतुलित और योजनाबद्ध विकास हो सके । इसके अलावा यह संगठन दिल्ली जैसे मौजूदा शहरों की विकास योजनाएं तैयार करता है ताकि इन शहरों का नियंत्रित विकास हो सके ।
3. आवास और शहरी विकास निगम (हुडको)
हुडको की स्थापना 200 करोड़ रूपए की निधि से वित्तीय संचालन संगठन के रूप में हुई थी ।
इसके मुख्य उद्देश्य हैं :
(क) शहरी आवास के लिए वित्तीय सहायता
(ख) नए शहरों या उपनगरों की स्थापना करना
4. केंद्रीय भवन अनुसंधान संस्थान
सी.बी.आर.आई. कम लागत पर निर्माण के विभिन्नी तरीकों और निर्माण उद्योग के विभिन्न अन्य पक्षों पर अनुसंधान करता है । यह एक अनुसंधान संस्थान है ।
5. राष्ट्रीय निर्माण संगठन (एन.बी.ओ.)
एन.बी.ओ. सभी प्रवेशी तकनीकी जानकारी और वास्तुकारों और भवन निर्माताओं के बीच अंतरापृष्ठ का काम करता है ।
6. हिंदुस्तान हाउसिंग फै़क्टरी (एच.एच.एफ़.)
एच.एच.एफ़. देश भर में पूर्वनिर्माण उद्योग को बढ़ावा देती है ।
7. राज्य आवासीय बोर्ड से लेकर निर्माण प्राधिकरण तक :
इन सबके अलावा उपरोकत संस्थाओं में राज्य आवासीय बोर्ड हैं जो घरों की आवश्यकता को लागू करने और उनकी रूपरेखा तैयार करने तथा विकास के लिए बनाए गए मास्टर प्लान के अनुसार वर्तमान शहरों के नियंत्रित विकास के लिए जिम्मेदार हैं । वित्तीय सहायता के लिए वे हुडको जैसे संस्थानों पर निर्भर करते हैं ।
सभी संगठनों, हालांकि ये सूची पूरी नहीं है, की सहायता से सरकार विभिन्न भूमिकाएं निभाती है- जन कार्यों से लेकर वित्तीय संसाधनों को विस्तार, और अनुसंधान से लेकर निर्माण उद्योग को निधि का वितरण । बहुत कुछ किया जा चुका है लेकिन बहुत कुछ करना अभी बाकी है ।
वास्तुकला के क्षेत्र में आज हम वास्तुकारों और योजनाकारों की एक नई पीढ़ी देख रहे हैं । आज हमारे देश में लगभग 15 वास्तुकला विद्यालय हें । इनके साथ ही देशी निर्माण विज्ञान और तकनीक के उपकरण व जानकारी तथा नई सामग्री, पद्धति और विशाल स्तर पर योजना के साथ दिनों दिन बढ़ता अनुभव । यह सब कुछ आसान नहीं था ।
लेकिन पारंपरिकता और नवीनता के बीच की खाई को पाटने में विशाल निर्माण संस्थापन जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि वे लोग हैं जो नया सौंदर्यबोध विकसित करने में सफल हुए । अनेक कठिनाइयों का सामना कर ये लोग विदेशी और पारंपरिक वास्तुकला के अनुभवों से सीख कर ऐसी विचारधारा लाए हैं जो कि आधुनिक भारतीय वास्तुकला की प्रवृत्ति की परिचायक हैं । अब ज़ोर अदभुत विशालता पर न होकर उस चीज़ पर है जिसके साथ मितव्ययता, सादगी और उपयोगिता जैसे गुण हैं ।
यहां पर इन विचारों के विकास पर दृष्टि डालना प्रासंगिक होगा । वास्तव में सन् 1950 तक आधुनिक वास्तुकला के कुछ विचार तो हमारे पास थे ही नहीं । उस समय प्रसिद्ध वास्तुकार, ल कॉर्बूसिये ने चंडीगढ़ बनाया जो उसकी सबसे महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक थी ।
भारतीय वास्तुकारों की सोच पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा क्योंकि अब तक उन्होंने भव्य मंदिर या ऐतिहासिक किले या फिर आधुनिक वास्तुकला के नाम पर नई दिल्ली की राजसी ब्रिटिश राजधानी देखी थी । इन सबसे अभिभूत, उन्हें आधुनिक वास्तुकला की यह अभिव्यक्ति काफी पसंद आई । भव्य और सनसनीखेज़ होने के साथ-साथ यह मौसमी विश्लेषण के तर्क-संगत आधार और योजना की स्वतंत्रता पर आधारित थी । आने वाले वर्षों में पूरे भारत में ऐसी इमारतें बनीं जिनकी समान अभिव्यक्ति थी और जो समान चीज़ों से बनी थीं । लेकिन इससे पहले कि ल कॉर्बूसिये के विचार भारत में अपनाए जाते उन्हें निश्चित रूप देना आवश्यक था । कुछ लोगों का मानना था कि केवल कंक्रीट और सुघटय आकार ही सभी भारतीय स्थापत्य समस्याओं का समाधान नहीं थे भले ही वे कितने भी सनसनीखेज़ क्यों न हों ।
उसी समय घट रही एक समानांतर घटना ने आने वाले समय में भारत में आधुनिक वास्तुकला की दिशा को प्रभावित किया । भारतीय वास्तुकार उच्च शिक्षा और सांस्कृतिक प्रेरणा के लिए यूरोप और अमरीका जा रहे थे । भारतीय वास्तुकारों ने पश्चिमी देशों में विकसित विचारों से प्रेरणा ली । साठ के दशक में पश्चिमी देशों से शिक्षा प्राप्त वास्तुकारों की पेशेवरों और शिक्षकों के रूप में बहुत मांग थी । भारत की मौजूदा कठिन परिस्थितियों के बावजू़द इन्हों ने विदेश से प्राप्त शिक्षा का प्रतिपादन किया, उसका अभ्यास किया और उस पर प्रयोग भी किए । विचारों में उबाल आने लगा था । ऐसी कई बातों का बोध हुआ जो आने वाले समय में वास्तुकला का तर्कणापरक आधार बनीं ।
सबसे पहले इस बात को बोध हुआ कि यदि हमें भारत में भारतीयों के लिए वर्तमान सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति और मौसम को ध्यान में रखकर कुछ सार्थक करना है तो प्रेरणा और समाधानों के लिए हमें पश्चिम की ओर नहीं देखना चाहिए । हमें स्वयं अपने विकास और प्राकृतिक वृद्धि के प्रतिमान, निर्माण के अपने तरीके और सामग्री तथा पूर्ववर्ती अभिव्यक्ति विकसित करनी पड़ेंगी । इस अनुभूति ने एक खालीपन को जन्म दिया जिसके विभिन्न उत्तरों को पाने के लिए वास्तुकारों ने अलग-अलग दिशाओं में खोज आरंभ कर दी । प्रत्येक दिशा में सत्य के आंशिक बोध को ही संपूर्ण सत्य घोषित कर दिया गया । लेकिन वास्तव में प्रत्येक दिशा में हम आधुनिक वास्तुकला के तर्कसंगत आधार की ओर बढ़े हैं । प्रेरणा के लिए भारतीय वास्तुकारों ने जिस ओर सबसे पहले नज़र उठाई वह थी हमारे अपने गांव ओर लोक वास्तुकला । वास्तुकारों ने इस बात का अध्ययन करने में गहन रूचि दिखाई कि किस प्रकार भारत में पश्चिमी प्रभाव के पहले से ही लोग स्वयं अपनी समस्याओं का समाधान ढूँढ़ लेते थे । जैसलमेर के रेगिस्तानी घरों से लेकर पहाड़ी, मैदानी और तटीय स्थानों पर गांवों का विकास अध्ययन का केंद्र बन गए । प्रेरणा पाने के लिए जटिल योजनाओं का अध्ययन और विश्लेषण किया गया । कुछ ऐसे दु:साहसी वास्तुकार भी हैं जिन्होंने वर्तमान महानगरों के गहन आबादी वाले क्षेत्रों में मानव बस्तियों का अध्ययन किया जो वास्तुकारों की सहायता के बिना बनी थीं । इन वास्तुकारों का उद्देश्य था घनी आबादी और कम मंजिला किफायती आवास के विकल्प ढूँढना जो भारत के लिए एक चुनौतीपूर्ण समस्या है । इन दूरदर्शी, व्यावहारिक वास्तुकारों का मानना है कि इस प्रकार के सघन आबादी वाले क्षेत्रों में निर्माण के सरल तरीके ओर कम लागत वाली परंपरागत सामग्री को जब योजनाबद्ध तरीके से इस्तेमाल किया जाएगा तो हमें गरीब जनता के लिए शहरी आवास की सुविधा का समाधान मिलेगा । जहां इनमें से कुछ वास्तुकार हमारे पारंपरिक आवासों में ही अपने सवालों के जवाब ढूँढ रहे थे, वहीं अन्य लोग इस बात की छान-बीन करने में लगे थे कि निर्माण समस्याओं को सुलझाने में उद्योग की किस प्रकार मदद ली जाए । आवास, विशाल इमारतों और औद्योगिक इमारतों तथा जहां कहीं भी एक समान इकाई चाहिए, में पूर्वनिर्माण का विशाल स्तर पर प्रयोग हाता है । लेकिन अब तक भारत में तकनीकी बुनियादी ढांचे के अभाव में निर्माण उद्योग के औद्योगिकरण की दिशा में कुछ खास प्रगति नहीं हुई है जिसके कारण इसका प्रभाव अलंकार योजना तक ही सीमित रह गया है । लेकिन तकनीक का एक पक्ष जिसे सफलतापूर्वक वास्तुकला में लागू किया जा सकता है वह है औद्योगिक कचरे से नई सामग्री का आविष्कार और उत्पादन ताकि इन्हें स्टील, सीमेंट और पारंपरिक निर्माण सामग्री के स्थान पर उपयोग किया जा सके जिनकी वैसे भी भारी कमी है ।
वास्तुकार अब यह महसूस करने लगे हैं कि केवल सुंदर दिखने वाली इमारतें बनाना व्यर्थ है जब तक कि उनके साथ जल आपूर्ति, बिजली आपूर्ति, संचार और यातायात के आम साधन जैसी बुनियादी सुविधाएं न हों । दूसरे शब्दों में केवल इमारत ही नहीं बल्कि संपूर्ण पर्यावरण भी मायने रखता है । इसके लिए प्राकृतिक विकास के नमूनों पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देने की आवश्यकता है ताकि इन सारी सेवाओं के अभिन्यास को योजनाबद्ध तरीके से किया जा सके ।