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गुप्त मूर्तिकला

चौथी शताब्दी ईसवी सन् में गुप्त साम्राज्य की नींव पड़ने से एक अन्य युग की शुरुआत हो गई थी । गुप्ता राजा छठीं शताब्दी तक उत्तर भारत में शक्तिशाली थे, उनके समय में कला, विज्ञान और साहित्य ने अत्यधिक समृद्धि हासिल की । ब्राह्मणीय, जैन और बौद्ध देवताओं के प्रतिमा-विज्ञान के मानदण्डों को सटीक बनाया गया तथा उनका मानकीकरण किया गया था, जिसने उत्तरवर्ती शताब्दियों के लिए आदर्श नमूने के रूप में न केवल भारत में बल्कि इसकी सीमा के पार भी कार्य किया। यह चहुँमुखी सम्पूर्णता का युग था । जैसा कि कालिदास की रचनाओं में, पारिवारिक जीवन प्रशासन तथा साहित्य कला सबंधी रचनाओं में और धर्म तथा दर्शन-शास्त्र में तथा भागवत भक्ति में उदाहरण देकर समझाया गया है । यह स्वदेशी जीवन, प्रशासन, साहित्य में समग्र सम्पूर्णता का एक युग था जिसने सौन्दर्य के एक गहन पंथ के रूप में अपनी एक पहचान स्थापित की ।

गुप्त काल के साथ-साथ भारत ने मूर्तिकला के उत्कृष्ट काल में प्रवेश किया था । शताब्दियों के प्रयास से कला की तकनीकों को सम्पूर्णता मिली । निश्चित शैलियों का विकास हुआ, और सूक्ष्मता से सौन्दर्य के आदर्शों का सृजन हुआ । अब अंधेरे में भटकने जैसी कोई बात नहीं थी अब कोई प्रयोग नहीं हो रहे थे । कला के वास्तविक लक्ष्यों और अनिवार्य सिद्धान्तों को बुद्धिमानी से पूर्णरूपेण समझ कर एक उच्च विकसित सौन्दर्य बोध और कुशल हाथों द्वारा कौशलपूर्ण निष्पादन कर ऐसी अद्वितीय कृतियों को जन्म दिया जो उत्तरवर्ती युगों के भारतीय कलाकारों के लिए आदर्श और निर्भीकतापूर्ण थे । गुप्त प्रतिमाएं आने वाले समय के लिए भारतीय कला का मात्र मॉडल ही नहीं रहीं बल्कि इन्हों ने सुदूर पूर्व में उपनिवेशों में आदर्शों के रूप में भी कार्य किया ।

गुप्त काल में पूर्ववर्ती चरणों के कलात्मक व्यवसायों की सभी प्रवृत्तियां और रुझान भारतीय इतिहास के सर्वोच्च महत्‍त्‍व के एकीकृत प्रतिभाविधायक परम्परा की पराकाष्‍ठा में पहुंच गए थे । इस प्रकार से गुप्त मूर्तिकला अमरावती और मथुरा की प्रारम्भिक उत्कृष्ट मूर्तिकला का एक तार्किक परिणाम है । इसकी सुघट्यता मथुरा से और लालित्य अमरावती से लिया गया है । फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्त मूर्तिकला का संबंध एक ऐसे क्षेत्र से है जो पूर्णरूपेण भिन्न है । ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्त कलाकार एक उच्चतर आदर्श के लिए कार्य कर रहे हैं । कला और विचारधारा के बीच लोगों के बाह्य रूपों और आन्तिरिक बुद्धिमत्ता और आत्मिक संकल्पना के बीच एक निकट सौहार्द स्थापित करने के प्रयास में कला के प्रति दृष्टिकोण में नया अभिविन्यास देखा गया है ।

भरहुत, अमरावती, सांची और मथुरा की कला एक-दूसरे के निकट और निकट आती चली गई और मिलकर एक हो गई । संरचना में, महिला आकृति अब आकर्षण का केन्द्र बन गई है और प्राकृतिक सौन्दर्य पृष्ठभूमि में रह गया लेकिन ऐसा करते समय मानवकृतियों मे इसने अपने कभी न समाप्त होने वाले और तरंगित लय की छाप छोड़ी है । मानव आकृति को एक प्रतिमा के रूप में मानते हुए यह गुप्त मूर्तिकला की धुरी बन गई है । सौन्दर्य के एक नए मानदण्ड का विकास हुआ जिसके परिणामस्वरूप सौन्दर्य के एक नवीन आदर्श का आविर्भाव हुआ । यह आदर्श मानव शरीर में इसकी कोमलता और लचीलेपन के संबंध में एक सुस्पष्ट समझ पर आधारित है । गुप्त मूर्तिकला अपनी चिकनी और चमकदार संरचना के साथ अपने कौशल तथा नमनशील शरीर निर्बाध एवं सरल संचलन को सुविधाजनक बनाता है और विश्राम का आभास कराती मूर्ति भीतर से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा से भरी हुई प्रतीत होती है । ऐसा केवल बौद्ध, ब्राह्यणीय और जैन देवताओं की प्रतिमाओं के संबंध में ही नहीं बल्कि पुरुषों तथा महिलाओं की मूर्तियों के संबंध में भी सच है । कलाकार इसके लिए प्लास्टिक की सतह की अति संवेदनशीलता पर बल देने का प्रयास करता है और इसके लिए शरीर को ढकने का प्रयास करने वाले अलंकृत वस्त्र, आभूषण आदि जैसी अतिशयताएं न्यूनतम रह जाती हैं । अत: गीले या पारदर्शी चिपके हुए वस्त्र इस युग का फैशन बन गए थे

लेकिन विशेष रूप से महिला आकृतियों के मामले में इन वस्‍त्रों के इन्द्रियगत प्रभाव की जागरूक नैतिक अनुभूति को प्रतिबंधित कर दिया था और गुप्‍त मूर्तिकला से नग्‍नता को एक नियम के रूप में समाप्‍त कर दिया गया था । इस अवधि की महान कलात्‍मक रचनाओं में मधुर तथा कोमल रूपरेखाओं का समावेश किया गया था, अलंकरण और सम्‍मानित आत्‍मसंयम को निमंत्रित किया था । गुप्‍तकाल के संरक्षण में, मथुरा और सारनाथ के अध्‍ययनों ने अत्‍यधिक गुणों वाली अनेक कृतियों का निर्माण किया । हालांकि ये धर्म से हिन्‍दू थे तथापि सहिष्‍णु शासक थे ।

मथुरा से बुद्ध की भव्य लाल बलुआ पत्थर की प्रतिमा पांचवीं शताब्दी ईसवी सन् की गुप्त कारीगरी का एक सर्वाधिक असाधारण उदाहरण है । यहां महान गुरु को उसकी सम्पूर्ण भव्यता के साथ खड़े हुए दिखाया जाता है, उसका दाहिना हाथ संरक्षण आश्वस्त करते हुए अभयमुद्रा में है और बाएं हाथ से वस्त्र का किनारा पकड़ा हुआ है । उदास नेत्रों के साथ मुस्कुराती हुई उसकी मुखाकृति आत्मिक उल्लास से वंचित रह जाती है । दोनों कंधों को ढकने वाले वस्त्र का कुशलतापूर्वक निरूपण निपुणतापूर्वक ढकी हुई आरेखीय परतों से होता है और यह वस्त्र शरीर से चिपका है । सिर एक उभार के साथ आरेखीय सर्पिल कुण्डलों से ढका है और विस्तृत प्रभामण्डल मनोहारी आभूषणों के संकेन्द्रित फीतों से सजा है ।

बुद्ध की प्रतिमा में परिष्कृत प्रवीणता और अभिव्यक्ति की राजसी शक्ति को स्याम, कम्बोडिया, बर्मा, जावा, मध्य एशिया, चीन तथा जापान आदि ने बौद्ध धर्म अपनाने के साथ ही स्थानीय परिर्वतन के साथ ग्रहण किया ।

सारनाथ में खड़े हुए बुद्ध की प्रतिमा परिपक्वता में गुप्तकालीन कला का एक उत्कृ्ष्ट उदाहरण है । कोमलता से झुकी हुई आकृति में दाहिना हाथ संरक्षण आश्वास्त‍ करने की स्थिति में है । मथुरा की बुद्ध की मूर्ति में निपुणतापूर्वक काट कर बनाई गई वस्त्रों की परतों से भिन्न, पारदर्शक वस्त्रों के किनारे मात्र को दर्शाया गया है । अपनी शान्त आत्मिक अभिव्यक्ति से मेल खाती हुई आकृति का सटीक निष्पा‍दन वास्तव में उत्कृष्ट कहलाने के योग्य है ।

सारनाथ, न केवल रूप की कोमलता और परिष्करण से परिचय कराता है बल्कि अपनी स्वयं की धुरी पर हल्के से टिकी हुई खड़ी आकृति के संबंध में शरीर को झुका कर विश्राम की एक मुद्रा को भी प्रस्तुत करता है । इस प्रकार इसमें मथुरा की समान कृतियों की कठोरता के प्रतिकूल कुछ लचीलापन और संचलन मिलता है । यहां तक कि बैठी हुई प्रतिमा प्रतिरूपण छरहरे शरीर, संचलन का आभास गूढ़ सूक्ष्मता के साथ कराती हैं । परतों को अब बिल्कुल निकाल दिया गया है, शरीर पर वस्त्र अब पतली रेखाओं के रूप में विद्यमान हैं जो वस्त्र के किनारों का संकेत देते हैं । पृथक होने वाली परतों को पुन: मलमल का वस्त्र दिया जाता है । शरीर में अपनी चिकनी तथा चमकदार सुगढ़ता सारनाथ के कलाकारों के मूल विषय थे ।

गुप्त काल के दौरान भारतीय मन्दिरों की विशेषताओं वाली तकनीक उभर कर सामने आए । मूर्तियों का सामान्य वास्तुकला योजना के एक आन्तरिक भाग के रूप में उत्तम रीति से प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया गया । देवगढ़ के मन्दिरों और उदयगिरि तथा अजन्ता के मन्दिरों के प्रस्तर उत्कीर्ण अपने सजावटी विन्यास में मूर्तिकला के उत्कृष्ट नमूने हैं । देवगढ़ मन्दिर में अनन्त सर्प पर सोते हुए परमसत्ता का प्रतिनिधित्व करने वाले शेषशायी विष्णु का एक विशाल पैनल, विश्व की समाप्ति और इसके नए सृजन के बीच की अवधि में शाश्वतता का एक उत्तम उदाहरण है ।

चार भुजा वाले विष्णु ऐसे आदिशेष की कुण्डली पर शालीनता से लेटे हुए हैं जिसके चार फन विष्णु के मुकुटधारी सिर पर एक छतरी बनाते हैं । उनकी पत्नीश लक्ष्मी उनका दाहिना पांव दबा रही हैं और दो परिचर आकृतियां लक्ष्मी के पीछे खड़ी हैं । कई देव तथा दिव्य पुरुष ऊपर घूम रहे हैं । उभरी पैनल में, मधु और कैटभ नाम के दो राक्षस, जो कि आक्रमण करने की मुद्रा में, विष्णु के चार मूर्तिमान अस्त्रों को चुनौती दे रहे हैं । पूरी संरचना को उत्कृष्ट कौशल से बनाया गया है जो नितान्‍त शान्ति आन्दोलित तनाव का एक वातावरण उत्पन्न करती है और इसे कला की एक श्रेष्ठ कृति बनाती है।

विष्णु की एक भव्य मूर्ति का संबंध गुप्त काल, पांचवीं शताब्दी ईसवी सन् से है जो मथुरा में है । प्रतीकात्मक गाउन, वनमाला, मोतियों की ऐसी मनोहारी डोरी जो ग्रीवा के चारों ओर घूमती है, लम्बा और सुरुचिपूर्ण यज्ञपवित्र, प्रारम्भिक गुप्ता कृति के उदाहरण हैं ।

अहिछत्र में शिव मंन्दिर के ऊपरी चबूतरे की ओर जाने वाली प्रमुख सीढ़ी के पार्श्व के आलों में मूल रूप से स्थापित गंगा और यमुना, दो आदमकद पक्की मिट्टी की मूर्तियों का संबंध गुप्त काल चौथी शताब्दी ईसवी से है । गंगा अपने वाहन मकर और यमुना कच्छप पर खड़ी है । कालिदास ने इन दोनों देव नदियों का शिव के परिचर के रूप में उल्लेख किया है तथा ऐसा गुप्त काल की परवर्ती मन्दिर वास्तुकला की एक नियमित विशेषता के रूप में होता है । इसका सर्वाधिक उल्लेखनीय उदाहरण देवगढ़ के ब्राह्यणीय मन्दिर के द्वार के बाजू हैं । मिट्टी की लघु-मूर्ति का सामाजिक और धार्मिक इतिहास के स्रोतों के रूप में अत्यधिक महत्‍त्‍व है । भारत में पकी हुई चिकनी मिट्टी से निर्मित लघु-मूर्तियों की कला अति प्राचीनतम महत्‍त्‍व की है, जैसा कि हमने पहले ही हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में देखा है जहां भारी मात्रा में मृण्मूर्तियां मिली हैं ।

शिव का सिर गुप्त मृण्मूर्ति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है जिसे एक मुख्य एवं मनोहारी शीर्षस्थ गांठ से बंधे निष्प्रभ लट के रूप में दर्शाया गया है । शिव तथा पार्वती दोनों की आकृतियों के चेहरे की अभिव्यक्ति ध्यान देने योग्य है और ये अहिछत्र के दो सर्वाधिक मनोहारी नूमने हैं ।

पार्वती का सिर तीसरी आंख के साथ है और माथे पर अर्द्धचन्द्र है । उनकी अलक-लटों को खूबसूरती के साथ व्य्वस्थि‍त किया गया है, उनकी वेणी को एक माला से कसा गया है और पुष्प के एक उभार से सजाया गया है । उन्होंने एक गोल बाली पहनी हुई है जिस पर स्वस्तिक का चिह्न है ।

दक्षिण में वाकाटक सर्वोपरि थे जो उत्तर में गुप्त के समकालिक थे । इनके क्षेत्र में कला में हासिल किए गए सम्पूर्णता के उच्च जल-चिह्न को अजन्ता की उत्तरवर्ती गुफाओं में और ऐलोरा की एवं औरंगाबाद की पूर्ववर्ती गुफाओं में बेहतर ढंग से देखा जा सकता है ।