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इंडो-इस्लामिक आर्किटेक्चर

हिंद इस्लामिक वास्तुकला का प्रारंभ 12वीं शताब्दी के अंत में भारत पर घुरिद कब्ज़े से हुआ । मुसलमानों को सासानी और बिज़ेन्टाइन साम्राज्यों से विभिन्न योजनाओं का खज़ाना विरासत में मिला । स्वाभाविक रूप से इमारतों के बारे में सुरूचिपूर्ण होने के कारण उन्होंने जिस भी देश पर कब्ज़ा किया, वहां की स्थानीय वास्तु‍कला को अपने अनुकूल ढालने में सदा सफल रहे ।

दोनों प्रकार की वास्तु्कला में जो सबसे महत्‍त्‍वपूर्ण तत्‍त्व थे, विशेषकर मस्जिदों और मंदिरों के संदर्भ में, वह थे दोनों शैलियों में अलंकरण का अत्यं महत्‍त्व और कई बार स्तंभावलियों से घिरा खुला प्रांगण लेकिन दोनों के बीच का अंतर भी उतना ही स्पष्ट था : मस्जिद का इबादत कक्ष विस्तृत था जबकि मंदिर का पूजा स्थल अपेक्षाकृत छोटा था । मस्जिद प्रकाशमय और खुली थी जबकि मंदिर अंधकारपूर्ण और बंद था । मंदिर और मस्जिद की रूपरेखा में अंतर का पूजा-अर्चना में हिंदू और मुस्लिम तरीके के बीच अंतर के माध्यम से समझाया जा सकता है । एक साधारण हिंदू मंदिर के लिए देवता की प्रतिमा को स्थापित करने का कक्ष, गर्भ गृह और उपासकों के लिए अक्सर सामने की ओर विशाल कक्ष बहुत थे लेकिन इस्‍लाम में इबादत के तरीके में एक साथ नमाज़ के लिए एक विशाल कक्ष हो जिसका पश्चिमी छोर मक्का की ओर मुँह करता हो, यानि की पश्चिमी भारत की ओर । नमाज़ कक्ष के पीछे की दीवार के मध्य में एक आला होता है जिसे मिहराब कहते हैं, जो नमाज़ करने की दिशा (किबला) बताता है । इसके दाहिने ओर का मंच (मिंबर) नमाजियों की अगुवाई करने वाले इमाम का होता है । शुरू में मुअज्जिन एक मीनार से अज़ान देते थे जो कि बाद में स्थापत्य का केवल एक हिस्सा बन कर रह गई । नमाज़ कक्ष के एक गलियारे या हिस्से को उन महिलाओं के लिए अलग कर दिया जाता था जो परदा करती थीं । मस्जि़द का मुख्य प्रवेश द्वार पूर्व दिशा में होता है और इसके चारों ओर चलने के लिए ढके हुए स्थान (लिवान) बने हैं । मस्जि़द के प्रांगण में प्रक्षालन के लिए अक्सर एक हौज़ का प्रावधान होता है ।

आपने देखा होगा कि वास्तुकला की इस शैली में न केवल नई पद्धतियां और सिद्धांत अपनाए गए बल्कि ये मुसलमानों की धार्मिक और सामाजिक आवश्यकताओं को भी प्रतिबिंबित करती हैं । इस्लामी वास्तुकला मेहराब, मेहराबी छत और गुंबद, स्तं‍भ और पिरामिडी मीनार या पतली मीनार, जिन्हें क्षैतिज कहा जाता है, पर आधारित थीं ।

हिंदू वास्तुकला शैली में स्थान आर-पार फैले टोडा थे जिन्हें मार्ग बनाकर जोड़ा गया था, प्रत्येक अपने नीचे वाले से बहुत दूर ताकि फैलाव को एक पटिया या ईंट से पाटे जा सकने वाले आकार तक सीमित किया जा सके । हालांकि मेहराब के भारत में पहले से विद्यमान होने के कुछ प्रमाण हैं, लेकिन माना जाता है कि मुसलमान मेहराब के निर्माण का सिद्धांत लेकर आए ताकि छत या दीवार या इमारत के ऊपरी हिस्से को यथावत रखा जा सके । ईंटों और पत्थरों को इस तरह से लगाया जाता था ताकि वे वक्र रेखा बना सकें और इमारत के ऊपरी हिस्से में ये संधान प्रस्तर से जुड़े होते थे । कई मामलों में प्राचीन समय में स्थानीय वास्तुकारों के इससे अवगत होने के बावजू़द भी मुसलमानों ने इसे पुन: प्रवर्तित किया । इसके परिणामस्वरूप चपटे सरदल या टोडेदार भीतरी छत का स्‍थान मेहराब और मेहराबी छतों ने ले लिया और पिरामिडी छत या मीनार का स्था़न गुंबद ने । चौकोर ढांचे के ऊपर गोल गुंबद बनाने की आवश्यकता को देखते हुए बगली डाट के माध्यम से कोणों को प्रवर्तित किया गया ताकि अनेक किनारे, अक्सर 16, वाले आधार को गुंबद के ऊपर गोलाकार ढोल आकार में रखा जा सके । ‍छज्जे को प्रवर्तित कर दीवारों से प्रक्षेपण पर बिठाए गए प्रास आलों पर बारजा बना । हिंदुओं की अंत्येष्टि से भिन्नमृतकों को दफ़नाने में कक्ष, पश्चिमी दीवार में एक मेहराब और ज़मीन के नीचे एक कक्ष में असली कब्र शामिल थे । आकार में विशाल और जटिल मकबरों में एक मस्जि़द और सुनियोजित बगीचा भी होता था । इस्लामी इमारतों की पद्धति, विषय-वस्तु या अंलकरण भी पूर्व प्रचलित पद्धतियों से भिन्न था । हिंदू शैली या अलंकरण मुखयत: प्रकृतिवादी है जिसमें समृद्ध वनस्पति जीवन के साथ मानव और पशु आकृतियां दर्शाई गई हैं । मुसलमानों में जीवित वस्तुओं का सजावट या अंकरण द्वारा निरूपण निषिद्ध था इसलिए उन्होंने ज्यामितीय और अरबस्क नमूने, अलंकृत लिखावट और वनस्पति जगत का निरूपण किया । संक्षेप में मुसलमानों का हिंद-इस्लामी वास्तुकला में गहरा और दिलचस्प योगदान था । उनके द्वारा लाई गईं स्थापत्य विशेषताओं में मेहराब, गुंबद, मीनार, लंबित, बगली डाट मेहराब, अर्द्ध गुंबद वाले दोहरे प्रवेशद्वार, छतरियां और निर्माण में कंकरीट का प्रयोग शामिल है । उन्होंने विभिन्न रंगों और रूपरेखाओं में मुलम्मेत और चित्रकारी की भी शुरूआत की । इस्लामी अंकरण तत्व अक्सर कशीदाकारी लगते थे । हालांकि भारत में काफी पहले से ही चूने के बारे में जानकारी थी और निर्माण कार्य में काफी हद तक इसे प्रयुक्त‍ किया जाता था, लेकिन ईंट के काम में अक्सर मिट्टी का प्रयोग होता था और पत्थर के बड़े-बड़े टुकडुों को एक दूसरे के ऊपर रखकर उन्हें लोहे की कीलों से जोड़ा जाता था । रोमवासियों की तरह मुसलमानों ने भी कंकरीट और चूने-गारे का निर्माण कार्यों में विस्तृत प्रयोग किया । संयोग से उन्होंने चूने का प्रयोग पलस्तर और अंलकरण के आधार के रूप में किया जो उसी में उत्कीर्ण होता था और टाइलों पर मीनाकारी को बनाए रखता था ।

आरंभ में मुसलमान हमलावर केवल हथियारबंद घुड़सवार थे जो कि देश में केवल लूटमार के उद्देश्य से आए थे और उन्होंने नगरों शहरों अथवा साम्राज्यों की स्थापना के बारे में नहीं सोचा । इसलिए वे अपने साथ वास्तुकार या राजमिस्त्री नहीं लेकर आए । दूसरी इमारतों को नष्ट कर उनसे प्राप्त निर्माणाधीन सामग्री को कई कामचलाऊ इमारतों जैसे दिल्ली की कुवत-उल-इस्लाम मस्जि़द और अजमेर का अढ़ाई दिन का झोंपड़ा में प्रयुक्त किया गया । अत: भारत में मुसलमानों के आगमन ने भारतीय वास्तुकला पर तुरंत ही कोई प्रभाव नहीं डाला । मुसलमानों का भारत पर हमला हज़ार वर्ष से भी अधिक समय तक चला और सन् 1526 में सम्राट बाबर के भारत पर हमले के बाद ही मुसलमानों ने देश में बसने का सोचा और समय बीतने के साथ वे इस बात से संतुष्ट हो गए कि अब वे इस देश के थे और देश उनका । सातवीं से 16वीं तक भारत में इस्लामी स्थापत्य, हमलावरों की अनिर्णीत स्थिति की ओर संकेत करता है । उन्हें लगता था कि वे अधीनस्थ लोगों के बीच रह रहे हैं जिनमें से अनेक उनके प्रति शत्रुतापूर्ण भावना रखते थे । इसलिए प्रारंभिक मुस्लिम नगर और शहर मकबरे का निर्माण भी किले की भांति करते थे ताकि वे शत्रु सेना से आसानी से उसकी रक्षा कर सकें ।

सन 1197 र्इसवी के लगभग कुतुबुद्दीन ऐबक ने कुवत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण करवाया । शिलालेखों से स्पष्ट है कि उसने लालकोट के राजपूत किले और किला राय पिथौड़ा के भीतर 27 हिंदू और जैन मंदिरों को नष्ट कर उनके नक्काशीदार स्तंभ, सरदल, छत की पटिया जिनपर हिंदू देवी-देवता बने थे, पूर्णघट और कडि़यों से लटकती मंदिर की घंटियों को ‘इस्लाम की शक्ति’ नामक मस्जि़द के निर्माण में लगा दिया । इसमें पांच लालित्यपूर्ण मेहराबों वाली पत्थर की एक विशाल जारी है । बीच का मेहराब सबसे ऊँचा है और हय डाट पत्थर और केंद्रीय पत्थर के साथ मेहराब के सिद्धांत पर न बनकर आगे के मार्ग को टोडेदार करके बना है एक ऐसी पद्वति जिसे भारतीय राजगीर 2000 से भी अधिक वर्षों से जानते थे । यह एक क्षैतिज निर्माण है जिसमें सरदल ऊपरी हिस्से को सहारा देते थे और मेहराब केवल अलंकरण के लिए प्रयुक्त होता था । समस्त कार्य स्थानीय हिंदू कारीगरों द्वारा किए जाने के कारण जालियों के अलंकरण में विशिष्ट हिंदू वनस्पतीय तत्‍त्व, सर्पिल प्रतान और तरंगित पत्तियां नज़र आती हैं । मुसलमानों द्वारा जो नया तत्‍त्‍व लाया गया वह था अरबी में शिलालेख, आगे की ओर 7.20 मीटर ऊँचा और 32 से 42 सेंटीमीटर की परिधि वाला लौह स्तंभ भी देखा जा सकता है । इसमें जिस चंद्र का उल्ले‍ख किया गया है वह और कोई नहीं चंद्रगुप्त विक्रमादित्य था । पिछले 1600 वर्षों से अपने स्थान पर खड़े इस स्तंभ का ज़ंग से क्षय नहीं हुआ है और यह अपने निर्माताओं के धातुकर्मीय कौशल का प्रमाण है ।

सन् 1199 के लगभग कुतबुद्दीन ने महरौली में कुतुबमीनार का निर्माण किया जिसे अंतत: इसके दामाद और उत्‍तराधिकारी इल्‍तुतमिश (1210-35) ने पूरा किया । एक तरह से इस मीनार का मस्जि़द से अनुलग्‍न कर इसलए खड़ा किया गया ताकि मुल्‍ला नमाज़ के लिए अज़ान दे सकें; या फिर यह मीनार विजय का प्रतीक भी हो सकती थी, हिंदू शासकों द्वारा निर्मित अन्‍य विजय मीनारों से भिन्‍न । मीनार में मूल रूप से चार मंजिलें थीं जिनमें से ऊपरी दो सन् 1373 में बिजली गिरने से नष्‍ट हो गईं । फिरोज़ शाह तुगलक (1351-88) ने इसकी दो मंजिलों का पुनर्निर्माण करवाया । बाहर की ओर निकले हुए छज्‍जे जिनकी निचली सतह को अलंकृत कर नक्‍काशी की गई थी, शिलालेखीय सतह पर नक्‍काशी और रंग-बिरंगी लंबी धारियों के साथ यह 72.5 मीटर ऊँची मीनार, जिसमें 399 सीढि़यां हैं, भारत की सबसे ऊँची प्रस्‍तर मीनार है ।

एक अन्य मस्‍ज़ि‍द है अजमेर की प्रसिद्ध अढ़ाई-दिन-का-झोंपड़ा जिसका निर्माण भी हिंदू मंदिरों के विध्वंस से प्राप्त सामग्री से किया गया था । इसकी योजना भी कुतबुद्वीन द्वारा निर्मित दिल्ली के मकबरे जैसी है जिसमें स्तंभावलियों में नक्काशीदार स्तं‍भों का प्रयोग किया गया है ।

कुतुब से 4 मील पश्चिम में स्थित है सुल्तान घरी का मकबरा जो कि भारत में एक चिरस्थायी मकबरे का पहला उदाहरण है । एक गढ़ी की भांति इसके इर्द-गिर्द दीवार का अहाता है जिसके कोनों पर बुर्ज बने हैं और ज़मीन के नीचे अष्टकोणीय कब्रगाह है । इसमें अनेक प्रस्तर स्तंभ, नक्काशीदार सरदल और मूलत: मंदिरों में प्रयुक्त‍ अन्य टुकड़े भी हैं जिन्हें हिंदू अलंकरण तत्‍त्वों से निकालकर पुन: प्रयोग में लाया गया है ।

अलाई दरवाज़ा का निर्माण अलाउद्दीन खिजली ने कुवत-उल-इस्लाम मस्जि़द के स्तंभावलियों वाले अहाते को बढ़ाकर और उसमें दो प्रवेशद्वार जोड़कर किया था । खिलजियों द्वारा निर्मित ऐसी व अन्या इमारतों मं स्थापत्य की विशेषताएं हैं नुकीले के आकार का मेहराब, विस्तृत गुंबद, बगली डाट के नीचे बने आलों में मेहराब, छिद्रित झरोखे, पट्टियों पर उत्कीर्ण अभिलेख और लाल बलुआ पत्थर का उपयोग जिसके बीच में संगमरमर लगाकर उसे उभारा गया है ।

तुगलकों द्वारा दिल्ली में निर्मित इमारतें, जैसे कि तुगलकाबाद का किलेनुमा शहर मज़बूत दिखाई पड़ते हैं क्योंकि ये बुर्ज, पक्की और ढालू दीवारों से घिरे थे, जैसा कि गियासुद्दीन तुगलक के मकबरे में भी दिखाई पड़ता है, जिसके कारण ये खाई के बीचों बीच गढ़ के समान थे और इस कारण अविजेय । इमारतों की सतह भूरे पत्थर से बनी अनलंकृत और आडंबरहीन हैं जिसमें विशाल कक्षों पर चंदोवाकार मेहराबी छत, खूब मोटी ढलुवा दीवार, गुप्तआ मार्ग और निकास, सब कुछ सुरक्षा की दृष्टि से तैयार किए गए हैं । कुछ हद तक हिंदू क्षैतिज पद्धतियों का प्रयोग तब भी जारी था; महराब का आभास देती छत और सीरिया और बायज़ेंटाइन से आयात किया गया गुंबद ।

खिलजी और तुगलक शैली जिनपर हमने पहले भी चर्चा की है, से अगली शताब्दी के दौरान अनेक इस्लामी मकबरों का विकास हुआ जिनके सुरुचिपूर्ण बरामदों में अनेक मेहराब और ऊँचाई पर मकबरा है । ये सभी तत्‍त्व‍ पश्चिमी देशों की देन हैं । इस दौरान कंगूरे, जो कि पहले सुरक्षा की दृष्टि से बनाए जाते थे, केवल सजावटी तत्‍त्व बनकर रह गए । मुस्लिम वास्तुकला के सद्भावपूर्ण सम्मिश्रण ने वास्तुकला की एक नई शैली को जन्म दिया जिसे हम हिंद-इस्लामी वास्तुकला कहते हैं । यह अन्य देशों की मुस्लिम वास्तुकला से बिल्कुल भिन्न है और इसमें हिंदू और मुस्लिम शैलियों के उत्कृष्ट तत्‍त्वों का सम्मिलन है । उदाहरण के लिए गुंबद वाली मेहराबदार इमारत में हिंदू आलों का खुलकर प्रयोग होने लगा । अतंर केवल एक ही था कि अब मुस्लिम गुंबद के नीचे कमल की आकृति बनने लगी ।

हिंद-इस्लामी वास्तुकला का अब इस दिशा में विकास होने लगा और उसमें बंगाल, गुजरात, जौनपुर, गोलकोंडा, मालवा और दक्क्न के प्रांतीय राज्यों का स्थानीय प्रभाव भी मिल गया ।

बंगाल के इस्लामी स्मारक अन्यं स्थानों पर पाई जाने वाली ऐसी इमारतों से योजना और रूपरेखा में ज्यादा भिन्न नहीं हैं । लेकिन निर्माण की अलग सामग्री और स्था‍नीय परंपराओं के प्रभाव ने उन्हें काफी भिन्नता प्रदान की है । ढलुवा छजली वाली तथाकथित ‘बंगाल’, छत जिसकी उत्पत्ति बांस के निर्माण से हुई थी, को मुसलमानों ने अपनाया और बाद में अन्य क्षेत्रों में भी इसका विस्तृत फैलाव हुआ । प्राचीन काल से बंगाल के कछारी मैदानों में ईंट ही निर्माण की मुख्य सामग्री थी जो आज भी है । पत्थर का प्रयोग मुख्यत: स्तंभों में किया जाता था जो नष्ट किए गए मंदिरों से मिले थे । ईंटों से निर्मित होने के बावज़ूद भी बंगाल में स्तंभ आमतौर पर छोटे और आयताकार हैं और उनका प्रवेश मेहराबदार है क्योंकि क्षैतिज निर्माण में पत्थर की आवश्यकता होती थी । आवृत ईंट और चिकने पत्थर का अक्सर अलंकरण में प्रयोग किया जाता था । .

गौड में निर्माण और अलंकरण की इस शैली का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रारंभिक इमारत है बरबक शाह (1959-74) का दाखिल दरवाज़ा जो कि किले के सामने एक पारंपरिक प्रवेशद्वार है । ऊर्ध्वस्ती तोरणों के बची एक ऊँचे मेहराबदार प्रवेशद्वार और कोनों पर पतली मीनारों वाला यह एक भव्य ढांचा है ।

सन 1572 में अहमदाबाद में निर्मित सिद्वी सैयद मस्जिद की विभिन्न दीवारों पर जालीदार झरोखे हैं । अपने जालीदार झरोखों के कारण यह विश्वप्रसिद्ध है जिनमें से कुछ में ‘तालपर्ण’ नमूना बना हुआ है जो बंगाल की दर्शबाड़ी मस्जिद में भी दिखाई पड़ता है । इसमें ज़रदोज़ी के काम की बारीकी है ।

बीजापुर का गोल गुंबद मुहम्मद आदिल शाह (1627-57) का मकबरा है । कुल मिलाकर 1600 वर्ग मीटर की भीतरी सतह पर बना यह विश्व का विशालतम गुंबदवाला कक्ष है । वास्तुकला की दृष्टि से यह एक साधारण निर्माण है जिसमें ज़मीन के नीचे एक आयताकार कक्ष में एक मकबरा है और ज़मीन के ऊपर एक आयताकार कक्ष है । इसे ऊपर का अर्धगोलाकार गुंबद और कोनों पर बनी सात मंजिला अष्टभुजा विशाल मीनारें इसे अदभुत बनाती हैं । प्रत्येक बाहरी दीवार तीन पश्चगामी मेहराबों में विभाजित है । इसके भीतर एक 3.4 मीटर चौड़ा गलियारा ग्रीवा के स्तर पर बनाया गया है । इसे सरगोशी गलियारे के नाम से जाना जाता है क्योंकि गुंबद के नीचे एक हल्की सी फुसफुसाहट भी गूँज उठती है । विशाल अर्धगोलाकार गुंबद का तला पंखुडियों से ढका हुआ है ।

मुगलों के आगमन से हिंद-इस्लामी वास्तुकला में मानों नए प्राणों का संचार हुआ क्यों कि लोदी काल के दौरान वास्तुकला गतिविधियों में काफी गिरावट आ गई थी । मुगलों ने जल्दी ही इस बात को समझ लिया था कि वे भारत में चिरस्थायी साम्राज्य तब तक स्थापित नहीं कर पाएंगे जब तक कि वे स्थानीय लोगों को अपने साथ नहीं लेंगे और उनके साथ घुलेंगे मिलेंगे नहीं, विशेषकर राजस्थान के राजपूतों से । शुरू में शासकों की रूचि केवल अपनी सल्तनत स्थापित करने और उसे सुरक्षित करने में थी जैसा कि दिल्ली सुल्तानों के मामले में देखने को मिलता है । स्वयं को विजेता समझने वाले ये शासक अपनी प्रजा से दूरी बनाए रखते थे । इस कारण उनके और जिस देश की जनता पर उन्हें शासन करने का सौभाग्य मिला था, के बीच गहरी खाई थी । लेकिन मुगलों की नीति इस सबसे विपरीत हिंदुओं से मेल-मिलाप और शांति स्थापन की थी । अकबर ने अपनी हिंदू प्रजा के साथ शांति और भाईचारा बनाए रखने के लिए सब कुछ किया । उसकी शांति स्थापन की नीति, हिंदू संस्कृति की मुक्त प्रशंसा ओर एक नए उदार धर्म दीन-ए-इलाही के स्रष्टा के रूप में उसके गैर कट्टरपंथी तरीके, वास्तुकला में भी परिलक्षित होते हैं । जहांगीर, आधा हिंदू था क्योंकि उसकी मां जोधाबाई एक राजपूत राजकुमारी थी । उनके उदार शासनकाल में मुगल साम्राज्य तथा वास्तुकला फले-फूले और नई ऊँचाइयों को छुआ । लेकिन अंतिम मुगल शासक औरंगज़ेब के शासनकाल में अचानक ही इस सबका अंत हो गया । औरंगज़ेब एक कट्टर मुसलमान था जिसने अपने पूर्वजों की मैत्रीपूर्ण नीतियों को पलटने की कोशिश में सारी प्रक्रिया को रोककर खत्म कर दिया । उसका मानना था कि कला, संगीत, नृत्य, चित्रकला, यहां तक कि वास्तुकला भी सांसारिक इच्छाओं से जन्मीक बुराइयां हैं । इस कारणवश सौंदर्यविषयक समालोचना और वास्तुशिल्पी‍य कार्यों में अचानक ही गिरावट आई और उनका पतन हो गया ।

मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर संस्कृति प्रेमी था और उसकी सौंदर्यपरक रुचि अदभुत थी । भारत पर उसके शासन के चार वर्ष मुख्यत: युद्व में बीते । लेकिन औपचारिक बगीचों में उसकी रुचि के चलते कुछ बगीचों का श्रेय उसे जाता है । उसके काल के दौरान सिवाय कुछ मस्जिदों के, वास्तुकला का और कोई उदाहरण नहीं है ।

बाबर की मृत्यु के बाद उसका बेटा, हुमायूँ, उसका उत्तराधिकारी बना । लेकिन शेर शाह सूरी ने उसे भारत से खदेड़ दिया । इरान में शरण लेने के बाद हुमायूँ ने सिकंदर शाह सूर का तख्ता पलट अपनी गद्दी पुन: हासिल की ।

सूर वंश ने सासाराम में मकबरे बनवाए जिनमें स्वयं शेर शाह का मकबरा भी शामिल था । यह मकबरा लोदियों के अष्टभुजाकार नमूने के संतुलित कर और उसमें चारों ओर बरामदा देकर बनाया गया था । इसके सभी किनारों पर मेहराब और सभा-भवन के ऊपर विशाल और चौड़ा गुंबद बना था । सूरों ने लाल और गहरे भूरे पत्थरों की जालीदार यवनिका, अलंकृत कंगूरों, चित्रित छत और रंगीन पत्थरों का प्रयोग किया ।

पुराना किला और उसके भीतर बनी किला कोहना मस्जिद का निर्माण भी शेर शाह सूरी ने करवाया । पुराना किले की मज़बूत दीवारें विशाल आधे गढ़े पत्थरों से बनाई गई हैं जिनमें अल्पकतम अलंकरण ओर सजावट है ।

फारसी वास्तुकला से प्रभावित वास्तविक मुगल वास्तुकला का पहला स्पष्ट उदाहरण दिल्ली में हुमायूँ का मकबरा है जिसका निर्माण उसकी विधवा बेग़ा बेगम ने करवाया था । उत्तरकालीन मुगल वास्तुकला के सही अध्ययन की दृष्टि से यह मकबरा महत्वपूर्ण है । इस मकबरे के आदिप्रारूप को शाहदरा, लाहौर, में जहांगीर का मकबरा तथा आगरा स्थित प्रसिद्ध ताजमहल की योजना तैयार करने वाले वास्तुकारों ने प्रयोग किया । हालांकि सिकंदर लोदी का मकबरा भारत में बना पहला ऐसा मकबरा है जिसके इर्द-गिर्द बगीचा है, लेकिन हुमायूँ का मकबरा अपने आप में अनूठा है । यह एक निष्ठावान पत्नी द्वारा अपने राजसी पति के लिए बनाया गया एक भव्य , विशाल और प्रभावशाली स्मारक है । एक विशाल चबूतरे पर खड़ा वास्तविक मकबरा एक चौकोर बगीचे के बीचों बीच खड़ा है जो कि चारबाग द्वारा चार मुख्य हिस्सों में विभक्त है जिनके बीच में पानी की उथली नहरें थी । मकबरे की चौकोर, लाल बलुआ पत्थर से निर्मित दो मंजिली इमारत एक ऊँचे चौकोर चबूतरे पर खड़ी है जो कि कक्षों की एक शृंखला पर बनी है । स्मारक वाले अष्टकोणीय केंद्रीय कक्ष की योजना पर सीरिया और पूर्ववर्ती इस्लामिक नमूनों का प्रभाव था । यहां पर पहली बार गुलाबी बलुआ पत्थर और सफेद का प्रभावी तरीके से प्रयोग किया गया है । सफेद का दरवाज़ों और खिड़कियों को उभारने, उनके इर्द-गिर्द घेरा बनाने और उन पर बल देने के लिए प्रयोग किया गया है जो रूपरेखा को और मज़बूत बनाता है ।

पूरी इमारत में एक लयात्मकता देखने को मिलती है, फिर चाहे वह उसकी संतुलित रूपरेखा में हो या समान आकार लिए गुंबदों वाले समान मंडपों पर विशाल गुंबद के दोहराव में । मकबरा, फारसी वास्तुकला और भारतीय परंपराओं का सम्मिश्रण है जो कि उसके मेहराबदार आलों, गलियारों और ऊँचे दोहरे गुंबद और छतरियों, जो दूर से उसे पिरामिडी आकार देते हैं, में दिखाई पड़ता है । यह मज़बूत और विशाल मकबरा एक समर्पित पत्नी की एक महान सम्राट, अथक सेनानी और बलवान पुरूष के लिए एक प्रेमपूर्ण रचना है ।

अकबर की कला और वास्तुकला में गहरी रुचि थी और उसकी वास्तुकला में हिंदू और मुस्लिम निर्माण व अलंकरण का अच्छा सम्मिश्रण देखने को मिलता है । अकबर के शासन का केंद्र आगरा में था । आगरा में यमुना के तट पर उसने लाल बलुआ पत्थर से बने अपने प्रसिद्ध किले का सन् 1565 में निर्माण आरंभ कर सन् 1574 में उसे पूरा किया । प्रवेशद्वारों की ओर मुँह किए हुए बलुआ पत्थर की ऊँची दीवारें जिनके दोनों ओर बुर्ज, विशाल सभा गृह महल, मस्जिद, बाज़ार, स्नानघर, बगीचे ओर दरबारियों व कुलीन वर्ग के लिए घर थे, के साथ आगरा के किले ने शाही किलों के निर्माण की ऐसी रूपरेखा बनाई जो भावी किलों के लिए एक आदर्श बन गई । फ़तेहपुर सिकरी सहित अकबरी महल व अन्ये इमारतें लाल बलुआ पत्थर से बनी हैं और इनकी निर्माण पद्धति क्षैतिज और न्यूनतम अलंकरण के साथ है । जहांगीरी महल के ताखा, आले, टोडा और दरवाज़ों के सरदल तथा दरवाज़ों के ऊपर बने छज्जे सहित सभी पर भारी काम किया गया है ।

फ़तेहपुर सीकरी एक नगर था जिसकी योजना एक ऐसी प्रशासनिक इकाई के रूप में बनाई गई थी जिसमें सार्वजनिक इमारतें और निजी निवास एक दूसरे के समीप थे । फ़तेहपुर सीकरी का निर्माण अकबर ने शेख सलीम चिश्ती के प्रति आभार स्वरूप करवाया था जिन्होंने यह भविष्यवाणी की थी कि अनेक संतानों की असमय दुखद मृत्यु के बाद अकबर के तीन पुत्र होंगे जो जीवित बचेंगे ।

सन् 1569 में फ़तेहपुर सीकरी का निर्माण कार्य आरंभ होकर सन् 1574 में पूरा हुआ । उसी वर्ष आगरा के किले का निर्माण कार्य भी पूरा हुआ । फ़तेहपुर सीकरी एक साधारण और सघन नगर-क्षेत्र है जिसमें सभा गृह, कार्यालय, बगीचे, विहारस्थल, स्नानघर, मस्जिद और मकबरे हैं जो कि वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं । लगभग सभी इमारतें क्षैतिज निर्माण पर आधारित हैं ।

पंच महल या पांच मंजिला महल यहां की सबसे ऊँची, प्रभावशाली और प्रसिद्ध इमारत है । यह क्षैतिज निर्माण की हिंदू शैली पर आधारित है जिसमें स्तंभ, प्रस्तरपाद और आले शामिल हैं । इसमें केवल एक अपवाद है, पूरी इमारत के शीर्ष पर रखा सर्वोच्च गुंबद वाला मंडप जिसे जानबूझकर इमारत के मध्य में नहीं रखा गया है । इस मीनार का प्रयोग सम्राट और शाही परिवार के सदस्य संभवत: आमोद-प्रमोद के लिए करते थे । एक के ऊपर एक अवरोहात्मक मंजिलों वाली इस प्रभावशाली इमारत के ढके हुए हिस्सों के सामने खुले बारजे थे जो कि आराम और छाया को ध्यान में रखकर बनाए गए थे । हवादार और खुला, स्तंभों वाला बरामदा जिसकी छिद्रित रेलिंग थी, का उद्देश्य ठंडी मंजिलों पर बैठने वाले निवासियों को छाया और ताज़ा हवा पहुँचाना था ।

दीवान-ए-खास की योजना अनूठी है । यह एक आयताकार कक्ष है जिसके प्रत्येक सिरे पर तीन द्वार हैं । इसके बीचों बीच एक नक्काशीदार स्‍तंभ है जिसके शीर्ष पर भव्य पुष्पाकृति है । प्रत्येक दीवार पर समानान्तर छिद्रित खिड़कियां होने के कारण यह स्थान अत्यंत हवादार है । पहली मंजिल पर सभा-गृह के इर्द-गिर्द एक मनोहारी छज्जा है जो एक गोलाकार शीर्ष पर टिका हुआ है जिसे आले सहारा देते हैं । माना जाता है कि इमारत के बीचों बीच सम्राट का सिंहासन था जब कि उसके मंत्रि‍गण कोनों या बाहृय गलियारे में बैठते थे ।

तुर्की की सुल्ताना के घर में बरामदे से घिरा एक छोटा कक्ष है । इसमें बाहर और अंदर सुंदर नक्काशी की गई है ; विशेष रूप से चौड़े हाशिये के फलक पर नक्काकशी कर पशु-पक्षियों और वृक्षों सहित जंगल के दृश्यों को दर्शाया गया है । फ़रग्युबसन के शब्दों में एक ‘विशाल आभूषण पेटी’ में यह सबसे अलंकृत इमारत है ।

फ़तेहपुर सीकरी की अत्यंत विशाल और भव्य जामा मस्जिद की दक्षिणी दिशा में बुलंद दरवाज़ा नामक एक विशाल प्रवेशद्वार है जिसे दक्कन पर अकबर की जीत के बाद बनाया गया था । अर्द्ध-अष्टभुजाकार प्रक्षेपण वाले इस प्रवेशद्वार में एक ऊँचा मेहराबदार आला है । संभवत: यह भारत का सबसे ऊँचा और भव्व प्रवेशद्वार है ।

फ़तेहपुर सीकरी में केवल एक इमारत सफ़ेद संगमरमर से बनी है- अकबर के आध्यात्मिक गुरु शेख सलीम चिश्ती का मकबरा । यह एक आयताकार कक्ष है जिसमें बेहतरीन सजावट वाले जालीदार फ़लकों से आवरण से ढका बरामदा है । जहांगीर की पत्नी नूरजहां ने सिकंदरा में अकबर का मकबरा, आगरा के किले में खूबसूरत जड़ाऊ काम वाला एक दुमंजिला चबूतरा जिसे मुसम्मन बुर्ज कहा जाता है, के अलावा आगरा में सबसे महत्वपूर्ण इमारत, अपने पिता और जहांगीर के प्रधान मंत्री, मिर्जा गियास बेग का मकबरा, इतमाद-उद-दौला बनावाया । एक बगीचे के अंदर बनी इस आयताकार इमारत में कब्र का कक्ष बरामदों से घिरा है । ऊपर की मंजिल पर आयताकार गुंबद वाला एक मंडप है जिसमें इतमाद-उल-दौला और उसकी पत्नी की नकली कब्र के इर्द-गिर्द एक चिलमन बनी हुई है । सफ़ेद संगमरमर से बनी इस इमारत को बारीक जड़ाऊ काम और चित्रों से अलंकृत किया गया है जिनमें सरू वृक्ष, गुलदान, फल, मदिरा के प्याले इत्यादि जैसे विशिष्ट फारसी चिन्ह दर्शाए गए हैं । चार कोनों पर मीनारें, बारीक जाली का काम, नक्काशी और जड़ाऊ काम, कई मायनों में बाद में ताजमहल पर परिष्कृत और प्रयुक्त, इस प्रकार के अलंकरण का पूर्वगामी है ।

मुगल वंश में सबसे अधिक निर्माण कार्य शाहजहां ने करवाए और वास्तुकला में भी उसकी गहन रुचि थी । उसकी नजर में सफ़ेद संगमरमर महँगा और उत्कृष्ट और हिंदुस्तान के बादशाह के लिए सही और उत्तम था । शाहजहां के काल में भारत में मुगलकालीन वास्तुकला में सर्वाधिक कार्य हुआ । अकबर की मज़बूत, सख्त और साधारण इमारतों की तुलना में शाहजहां की इमारतें अत्यं‍त मनोमुग्ध‍कारी, कोमल और स्त्री सुलभ होती थीं । अकबर द्वारा प्रयुक्त लाल बलुआ पत्थर पर साधारण जड़ाऊ काम के स्थान पर शाहजहां की इमारतों में संगमरमर पर बारीक नक्काशी की गई है जो कि पित्रा ड्यूरा की कला के साथ ज़रदोजी और जड़ाऊ काम प्रतीत होती है । मेहराब पर बेल-बूटे बनने लगे, गुंबद और गोल हो गया और उसकी ग्रीवा संकुचित तथा स्तंभों को शीर्ष स्तंभों की मदद से खड़ा किया गया । शाहजहां ने आगरा के किले में अकबर की साधारण गुलाबी बलुआ पत्थर की इमारतों को गिराकर उनके स्थान पर संगमरमर की राजसी और भव्य इमारतें बनवाईं ।

खास महल, दीवान-ए-खास, मोती मस्जिद और दिल्ली की जामा मस्जिद जैसी सुरूचिपूर्ण और अत्यंत अलंकृत इमारतों के अलावा शाहजहां ने सबसे रोमानी और भव्य इमारत, ताज महल का निर्माण किया जो कि उसकी प्रिय पत्नी अर्जुमंद बानो बेगम या मुमताज़ महल का मकबरा था । संगमरमर में एक स्व‍प्न, के समान, बगीचों वाले इस मकबरे की परिकल्पना की शुरूआत दिल्ली में हुमायूँ के मकबरे से हुई । ताज एक उठे हुए चबूतरे पर बना गौण मकबरा है जिसके चार कोनों पर मनोहर लंबी मीनारें हैं । हुमायूँ के मकबरे के समान मकबरा कक्ष अष्टभुजाकार है जिसके कोणों पर गौण कक्ष और मकबरे के ऊपर एक रमणीय दोहरा गुंबद है । दरवाज़े की चौखट संकरी और विशाल और गुंबद कहीं ऊँचा है । नीचे की ओर गुंबद का आकार कमल जैसा और कलश सहित है । ताज अपनी स्वर्गिक और स्वप्‍निल कोमलता, मनोहारी अनुपात और वास्तुकला व अलंकरण में सुव्यवस्थित संतुलन के लिए प्रसिद्व है । चाहे स्वप्न की भांति उसकी कोमलता हो या फिर बहुमूल्य जड़ाऊ काम, ताजमहल की नारीसुलभ विशेषता, जिस खूबसूरत स्त्री की स्मृति में उसे बनवाया था, कोमल, मधुर और सुनम्य है । हुमायूँ के मकबरे की भांति इसकी योजना भी चारबाग की थी जिसमें पानी की नहरों वाले फूलों से भरे बगीचे थे ।

सन् 1638 में शाहजहां ने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानांतरित की और दिल्ली के सातवें शहर शाहजहानाबाद की नींव रखी । शाहजहानाबाद में स्थित प्रसिद्ध लाल किले का निर्माण सन् 1639 में शुरू होकर 9 वर्ष बाद पूरा हुआ । लाल किले का आकार असमाकृति अष्टाभुज है । इस सुनियाजित इमारत की दीवारें, प्रवेशद्वार और कुछ अन्य ढांचे लाल बलुआ पत्थर से बने हैं जबकि महलों में संगमरमर का प्रयोग किया गया है । इसके दीवान-ए-आम में बनी संगमरमर की छतरी को सुंदर पित्रा ड्यूरा कला से अलंकृत किया गया है जिसमें कुछ चित्र भी दर्शाए गए हैं । दीवान-ए-खास एक ऊँचा, अलंकृत, स्तंभों वाला कक्ष है जिसकी समतल भीतरी छत उत्कीर्ण मेहराबों पर टिकी हुई है । इसके स्तंभों पर पित्रा डयूरा अंलकरण है जबकि ऊपरी हिस्से पर मूलत: मुलम्मा किया गया था और इस पर चित्र भी बने हुए थे । कहा जाता है कि इसके संगमरमर के मंच पर कभी प्रसिद्ध तख्त ताऊस रखा हुआ था ।

संगमरमर के खूबसूरत आवरण पर इंसाफ़ का तराजू दर्शाया गया है और संगमरमर के इस महल की दीवारों पर फारसी में पद्य लिखे गए हैं जिनमें किले के निर्माण की तारीखें, निर्माण पर हुआ खर्च और प्रसिद्ध पद्य ‘धरती पर यदि कहीं स्वर्ग है तो यही है, यही है, यही है’ उकेरा गया है ।

जहांगीर और शाहजहां द्वारा भव्य इमारतों के निर्माण की प्रक्रिया को अंतिम मुगल सम्राट, औरंगज़ेब, के गद्दी संभालते ही रोक लग गई ।

मध्य काल के अधिकांश राजाओं के अधिकांश महल नष्ट हो चुके हैं । इस्लामिक वास्तुकला की कुछ विशेषताएं केवल मुस्लिम किलों, महलों, मस्जिदों और मकबरों तक ही सीमित नहीं थीं बल्कि हिंदुओं ने भी इन्हें अपनाया और कुछ देशी विशेषताओं सहित अपनी इमारतों की रूपरेखा अपनी प्रथाओं और जीवन शैली के अनुरूप तैयार की ।

इस प्रकार के महलों में राजस्थान समृद्ध है । मुगलकाल के दौरान बनाए गए महलों की योजना एक दूसरे से भिन्न हो सकती है लेकिन उनमें वास्तु कला की कुछ विशेषताएं समान हैं जैसे कि उत्कीर्ण आलों पर टिके छज्जे, स्तंभों और गुंबद वाली छतरियां, धँसे हुए मेहराबों से आच्छादित मार्ग, बेल-बूटों से सजे मेहराब, जालीदार चिलमन, बंगाली शैली की वक्र छतें तथा आयताकार आधार से उठते समतल गुंबद । पथरीली ऊँचाइयों पर स्थित ये महल अत्यंत प्रभावशाली दिखते हैं । इनमें अंबेर, जयपुर, बीकानेर, जोधपुर, उदयपुर, जैसलमेर इत्यादि के महल शामिल हैं ।

गुजरात के सोलंकी शासक ने कीर्तिस्तंभ का निर्माण करवाया । ऐसा ही एक कीर्तिस्तंभ चित्तौड़ के किले में है जो उदयपुर से पहले मेवाड़ की राजधानी थी । इस स्तंभ का निर्माण सन् 1440 के बाद आठ वर्षों में हुआ । सन् 1440 में प्रतिष्ठापित कुंभस्वामी वैष्णव मंदिर के निर्माण के स्मरणोत्सव में सन् 1906 में इसका जीर्णोद्धार किया गया ।

अनेक ‘प्रयोगात्मक’ कार्यों, जिनमें हिंदू और इस्लामी पंरपराओं ने मिलकर कुछ अनूठा रचने का प्रयास किया था, में जयपुर का हवा महल एक रोचक उदाहरण है । जहां पर राजस्थान के गर्म और शुष्क मौसम के अनुरूप एक इमारत बनाने का अनूठा प्रयास किया गया । इस इमारत के संपूर्ण अग्रभाग पर 50 से भी ज्यादा उठे हुए मंडपों पर जालीदार यवनिका बनाई गई हैं । इनमें से प्रत्येक आधा झरोखा खिड़की है ताकि उन सहस्रों जालीदार खिड़कियों से हवा के कुछ झोंके अंदर आ सकें । ये आधे उठे हुए मंडप छोटे-छोटे गुंबदों और वक्ररेखी छतों से ढके हुए हैं जबकि इनके प्रवेश मेहराब के आकार के हैं । ये संभवत: भवुनेश्वर या तंजौर के छोटे आकार के बहुमंजिला शिखरों से प्रेरित हैं ।