भारतीय वास्तुकला के प्राचीनतम नमूने हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, रोपड़, कालीबंगा, लोथल और रंगपुर में पाए गए हैं जो कि सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता के अंतर्गत आते हैं । लगभग 5000 वर्ष पहले, ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दी में यह स्थान गहन निर्माण कार्य का केंद्र थे । नगर योजना उत्कृष्ट थी । जली हुई ईंटों का निर्माण कार्य में अत्यधिक प्रयोग होता था, सड़कें चौड़ी और एक दूसरे के समकोण पर होती थीं, शहर में पानी की निकासी के लिए नालियों को अत्यंत कुशलता और दूरदर्शिता के साथ बनाया गया था, टोडेदार मेहराब और स्नानघरों के निर्माण में समझ और कारीगरी झलकती थी । लेकिन इन लोगों द्वारा बनाई गई इमारतों के अवशेषों से इनके वास्तुकौशल और रुचि की पूर्ण रूप से जानकारी नहीं मिलती है । लेकिन एक चीज़ स्पष्ट है, विद्यमान इमारतों से सुरुचिपूर्ण पक्षों की जानकारी नहीं मिलती है और वास्तुकला में एकरसता और समानता दिखती है जिसका कारण इमारतों की खंडित और विध्व्स्तन स्थिति है । ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दी में स्थापित शहर जिनमें अदभुत नागरिक कर्त्तव्य-भावना थी और जो पहले दर्जे़ की पकी ईंट के ढांचे के थे । भारतीय कला के इतिहास के आगामी हज़ार वर्षों की वास्तुकला, हड़प्पा सभ्यता के पतन और भारतीय इतिहास के ऐतिहासिक काल के आरंभ, मुख्यत: मगध में मौर्य-शासनकाल के बीच कोई संबंध नहीं है । लगभग 1000 वर्ष का यह काल अत्यंत बुद्धिजीवी और समाज-वैज्ञानिक गतिविधियों से भरा था । इस दौरान किसी भी कलात्मक गतिविधि से विहीन रहना असंभव था । लेकिन इस काल में शिल्पकला और वास्तु कला में मिट्टी, कच्ची ईंट, बांस, इमारती लकड़ी, पत्तेां , घास-फूस और छप्पर जैसी जैविक और नाशवान वस्तुओं का प्रयोग होता था जो कि समय की मार नहीं झेल सकीं ।
प्राचीनतम काल के दो महत्त्वपूर्ण अवशेष हैं बिहार में राजगृह शहर की किलाबंदी और शिशुपालगढ़, संभवत: भुवनेश्वर के निकट प्राचीन कलिंगनगर, की किलाबंद राजधानी, राजगृह की किलाबंद दीवार कच्चे तरीके से बनाई गई है जिसमें एक के ऊपर एक अनगढ़ पत्थर रखे गए हैं । यह ईसा पूर्व 6-5 शताब्दी की है लेकिन शिशुपालगढ़ में ईसा पूर्व 2-1 शताब्दी में संगतराशों ने बड़े-बड़े पत्थरों से किला का प्रवेश द्वार बनाया जिसे कब्ज़ों पर हिलने वाले दरवाज़ों की सहायता से बंद किया जा सकता था ।
तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि अशोक के काल में संगतराशी और पत्थर पर नक्काशी फारस की देन थे । पर्सीपोलिस की भांति संगतराशी के मिलते-जुलते नमूनों के हमारे पास अनेक उदाहरण हैं लेकिन फिर भी लकड़ी ही मुख्य सामग्री थी और अशोक के समय के वास्तु अवशेषों में लकड़ी को छोड़कर पत्थर की ओर धीरे-धीरे परिवर्तन स्पष्ट है । पाटलिपुत्र में एक विशाल इमारती लकड़ी की दीवार के अवशेष मिले हैं जिसने किसी समय पर राजधानी को घेर रखा था । इस तथ्य का मेगास्थनिस ने स्पष्ट उल्लेख करते हुए कहा है कि उसके समय में भारत में सब कुछ इमारती लकड़ी से निर्मित था ।
लेकिन इसमें एक महत्त्वपूर्ण अपवाद है भारत की शैलोत्कीर्ण वास्तुकला । हम यहां पर गुफा वास्तुकला का अध्ययन केवलमात्र इस कारण से शामिल कर रहे हैं क्योंकि प्रारंभिक गुफा मंदिर और मठ किसी भी स्थान को सुंदरता और उपयोगिता के साथ सुनियोजित करने के उत्कृष्ट उदाहरण हैं ।
प्रारंभिक गुफा वास्तुकला का एक विशिष्ट उदाहरण है बिहार की बाराबार पहाडियों में लोमस ऋषि गुफा – जिसका सर्वाधिक बार काल निर्धारण भी किया गया है । एक शिलालेख से पता चलता है कि अशोक के काल में इसे आजीक संप्रदाय के लिए बनाया गया था । यह गुफा 55’ X 22’ X 20’ की एक चट्टान से तराश कर बनाई गई थी । इसका प्रवेश एक झोंपड़ी के प्रवेश के समान है जिसमें छत के किनारे मुड़ी हुई इमारती लकड़ी के बने हुए हैं जो कि आड़ी कड़ी पर टिके हुए हैं और जिसके सिरे बाहर की ओर निकले हैं । पत्थर पर नक्काशी कर बनाई गई हाथियों की चित्रवल्लरी लकड़ी पर तराशी गई इसी प्रकार की चित्रवल्लरी के समान है । इसके अलावा बांस से बनाई गई एक छोटी सी लकड़ी पर किए गए जालीदार काम की अनुकृति पत्थर पर बनाई गई है । इमारती लकड़ी पर बने हुए प्रारंभिक आकारों को पत्थर पर उकेरने की दिशा में हुए विकास का यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है । यह काल है ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी ।