अनेक प्रकार की विधियों से संपन्न भूमि भारत जहां एक ओर पर्यटक तो दूसरी ओर भारतीय वास्तुकला के प्रति जिज्ञासा रखने वाले छात्र के लिए रुचि का विषय रही है । भारत विश्व के तीन महान धर्मों: हिन्दू, बौद्ध और जैन-की जन्म भूमि रहा है । इन धर्मों ने यहां की कलाओं पर अपना प्रभाव डाला है । भारत की कलात्मक परंपराएं प्राचीन हैं और इनका धर्म से गहरा संबंध है । हालांकि भारत के दीर्घ इतिहास के विभिन्न चरणों में विदेशी सभ्यताओं और कलाओं ने भारतीय कला पर अपना कुछ प्रभाव डाला है, लेकिन प्रमुख सौंदर्य विषयक धाराएं मुख्यत: भारतीय ही रही हैं ।
भारतीय कला का स्वरूप प्रतिमाविधायक, सहज और मूर्तिप्रधान है । भारतीय वास्तुकला का स्वरूप इसका एक अच्छा प्रतीक है जो कि सीमाबद्ध न होकर शिल्पकार है । हालांकि शिल्प भारतीय कला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं, लेकिन वास्तुकला वह क्षेत्र है जिसमें राष्ट्रीय प्रतिभा ने निर्विवाद रूप से मौलिकता का प्रदर्शन किया है । भारतीय वास्तुशिल्प की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्तियों का विकास निश्चित रूप से वास्तुशिल्प कला के रूप में हुआ है । आमतौर पर वास्तुकला को किसी भी स्थान को क्रियात्मक रूप से सुव्यवस्थित और कलात्मक बनाने की कला कहा गया है एक महान वास्तुकार अपनी कृति को सुंदरता का आवरण पहनाता है । यह सौंदर्य केवल बाहर से ऊपरी तौर पर नहीं थोपा गया है, बल्कि उस इमारत के कण-कण में निहित है और उसे पूर्णता प्रदान करता है । भारत में वास्तुशिल्प शैली की प्रधानता का कारण इसके प्रति भारतीय रुझान है जो कि अन्य संस्कृतियों की तुलना में कहीं अधिक है, चाहे फिर वह चट्टानों से वास्तुशिल्प गुफ़ाएं और मंदिर तराशना क्यों न हो । वर्तमान समय की तुलना में प्राचीन भारत में कलाओं का विभाजन नहीं था – वास्तुकार, शिल्पकार और चित्रकार अक्सर एक ही व्यक्ति होता था । मूर्तियों में अक्सर रंग भरे जाते थे और ये मूर्तियां मंदिर का हिस्सा होती थीं । इस प्रकार वास्तुकला, शिल्पकला और चित्रकला में आज की तुलना में पहले कहीं अधिक गहरा संबंध था और अधिकांशत: यह एक उपयुक्त मेल था ।
प्राचीन विश्व में कला के क्षेत्र में भारत का प्रतिष्ठित स्थान है । जहां एक ओर यवन मानव शरीर की दैहिक सुंदरता, मिस्र के लोग अपने पिरामिड की भव्यता और चीनी लोग प्रकृति की सुंदरता को दर्शाने में सर्वोपरि थे, वहीं भारतीय अपने अध्यात्म को मूर्तियों में ढालने का प्रयास करने में अद्वितीय थे; वह अध्यात्म जिसमें लोगों के उच्च आदर्श और मान्यताएं निहित थीं । भारतीय कलाकारों ने धर्मग्रंथों में उल्लिखित देवी-देवताओं के स्वरूप की कल्पना कर उन्हें अपनी मूर्तियों में ढालने का प्रयास किया । ये मूर्तियां स्त्री और पुरुष का आदर्श स्वरूप थीं । भारतीय कला का धर्म में गहरा आधार है और यह जीवन के परम लक्ष्य-मोक्ष या जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्ति की प्राप्ति में सहायक होती है । भारतीय कलाकार दो तत्त्वों का सदैव ध्यान रखते थे, प्रचुरता और सजीव निरूपण की अभिव्यक्ति । कई बार इसके लिए संरचना को नज़रअंदाज कर दिया जाता था । प्रत्येक शिल्प में विवरण की अनुभूति, सजावट की समझ और तीक्ष्ण अवलोकन स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है । भारतीय कला पूर्णरूपेण, यौवन से भरपूर और बारीक काम वाली कला है जिसमें प्रतीकवाद और वास्तविकता, अध्यात्मिकता और विषयासक्ति का सम्मिश्रण है । भारतीय कला स्वयं में एक महानतम सीख लिए हुए है, प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान काल तक इसमें अद्वितीय सामंजस्य के साथ अद्वितीय निरंतरता भी है । हमने पहले कहा है कि भारतीय कला पर धर्म का प्रभाव था क्योंकि भारत विश्व के तीन महान धर्मों- हिंदू, बौद्ध और जैन की जम्न भूमि है और इन तीन धर्मों ने अधिकांश भारतीय कला को प्रभावित किया है । हम ‘अधिकांश’ शब्द का जानबूझ कर प्रयोग क्योंकि संपूर्ण भारतीय कला केवल धर्म पर आधारित नहीं है । भारतीय कलाकार इस ब्रह्रमांड से ही था, उसका निवास यहीं था, उसने अपने आसपास देखा, उसने जीवन के सुख और दुख की उस माध्यम- मिट्टी, लकड़ी, कागज़, धातु या पत्थर- द्वारा अभिव्यक्ति की । भारतीय कलाकारों द्वारा कला का निर्माण उस अर्थ में ‘वास्तविक’ नहीं है जिसमें हम यूनानी और रोमन कला को समझते हैं (लेकिन ये काल्पनिक और आदर्श है) ।
किसी ने भी राम, कृष्ण, विष्णु और शिव इत्यादि मुख्य देवताओं को वास्तव में देखा था, यह रहस्यमय है । लेकिन धर्मग्रंथों में उनके वर्णन के अनुसार भारतीय कलाकारों ने उनकी कल्पना कर उन्हें आमतौर पर सीधे खड़े दिखाया जो कि मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक अविचलता का सूचक है । पुरुषों का स्वरूप ओजस्वी चौड़े कंधों, गहरी छाती और संकुचित कूल्हों वाला दर्शाया गया है । वहीं दूसरी ओर स्त्रियों का स्वरूप पुरुषों के विपरीत- संकुचित कंधे, भरा हुआ और सुडौल वक्षस्थल, संकुचित कमर और चौड़े कूल्हे वाला दर्शाया गया है । भारतीय कलाकारों के अनुसार स्त्रियां मातृ या मां का प्रतीक हैं । इस पुस्तिका को तैयार करते हुए हमने मानव शरीर का उस खूँटी के तौर पर प्रयोग किया जिसपर हम अपनी कहानी को टांगेंगे और फिर देखेंगे कि बदलते हुए काल किसी विशिष्ट काल की पसंद और नापसंद में मानव शरीर को विभिन्न शैलियों में किस प्रकार दर्शाया गया । भारतीय कला प्राचीन समसामयिक जीवन, उसके विश्वास व मान्यताओं और रीति रिवाज़ों का खज़ाना है । कुछ लोगों का मानना है कि किसी भी काल की कला का उद्देश्य समसामयिक समाज, उसकी प्रथाओं, तौर-तरीकों, आदतों वस्त्र और आभूषण इत्यादि पहनने के तरीकों को दर्शाना है ।
कला के विभिन्न रूपों में चित्रकारी कला का सूक्ष्मतम प्रकार है जो रेखाओं और रंगों के माध्यम से मानव चिंतन और भावनाओं को अभिव्यक्त करती है । इतिहास के हज़ारों वर्ष पूर्व जब मनुष्य केवल गुफ़ाओं में रहता था, तब भी वह अपनी सुरुचिपूर्ण संवेदनशीलता और सृजनात्मक आवेग की संतुष्टि के लिए अपनी गुफ़ा को चित्रित करता था ।
भारतीयों में कला और रूपरेखा इतनी गहरी अंतर्निहित है कि प्राचीन काल से ही उन्होंने चित्र और रेखाचित्र बनाए, उन कालों में भी, जिनका हमारे पास कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है ।
भारत में लघुचित्रों का प्राचीनतम उदाहरण पूर्वी भारत में पाल शासकों के अंतर्गत बौद्ध धार्मिक पुस्तकों में चित्रों और 11-12वीं शताब्दी ईसवी में पश्चिम भारत के जैन ग्रंथों के माध्यम से देखने को मिलता है ।
पंद्रहवीं शताब्दी में पश्चिमी भारत की चित्रकला शैली पर फ़ारसी चित्रकला शैली का प्रभाव पड़ने लगा जो कि कल्पसूत्र की कुछ चित्रित पांडुलिपियों के किनारों पर दिखने वाली फारसी मुद्रण कला और शिकार के दृश्यों से स्पष्ट है ।
मुगल चित्रकला शैली का उदभव भारत में चित्रकला के विकास में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है । मुगल साम्राज्य की स्थापना के साथ ही सन् 1560 ईसवी में अकबर के शासनकाल के दौरान मुगल चित्रकला शैली का विकास हुआ ।
हालांकि अब तक दक्कन से किसी भी पूर्व मुगलकालीन चित्र के मिलने की बात सामने नहीं आई है, लेकिन हम यह मानकर चल सकते हैं कि वहां चित्रकला के परिष्कृत स्कूलों का विकास हुआ जिन्हों ने उत्तर भारत में मुगल शैली में अपना महत्वुपूर्ण योगदान दिया । सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में दक्कन में चित्रकला आरंभिक केंद्रों में अहमदनगर, बीजापुर और गोलकोंडा शामिल हैं । शुरू में दक्कन में चित्रकला पर मुगल शैली का प्रभाव नहीं था । लेकिन बाद में 17वीं और 18वीं शताब्दीग में मुगल शैल का इसपर गहरा प्रभाव पड़ा ।
मुगल चित्रकला मुख्यत: धर्म से अछूती है लेकिन मध्य भारत, राजस्थानी और पहाड़ी क्षेत्र इत्यादि की चित्रकला में भारतीय परंपराओं की गहरी पैठ है जो कि भारतीय महाकाव्यों, पुराण जैसी धार्मिक ग्रंथों, संस्कृत व अन्य भारतीय भाषाओं में प्रेम कविताओं, भारतीय लोक विधाओं और संगीत पर आधारित कार्यों से प्रेरणा लेते हैं । वैष्णव, शैव और शक्ति पंथों ने इन स्थानों की चित्रकला पर गहरा प्रभाव डाला ।
पहाड़ी क्षेत्र में वर्तमान हिमाचल प्रदेश, पंजाब के कुछ संलग्न क्षेत्र, जम्मू और कश्मीर राज्य का जम्मू क्षेत्र और उत्तर प्रदेश का गढ़वाल क्षेत्र शामिल हे । यह संपूर्ण क्षेत्र राजपूत राजकुमारों द्वारा शासित छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था । यह सभी राज्य 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लगभग 19वीं शताब्दी के मध्य तक महान कला गतिविधियों का केंद्र थे ।