भारत में, निष्पादन कलाओं के सर्वत्र व्याप्त विभिन्न पहलू असंख्य पर्वों तथा समारोहों में रंग एवं आनन्द भर देते हैं और लोगों में अपनी विरासत के प्रति विश्वास की अनुभूति होती है । ये पहलू प्राचीन परम्पराओं की सतत निरन्तरता को बनाए रखने के प्रति उत्तरदायी रहे हैं । ये अतीत और वर्तमान के बीच जुड़ाव की कड़ी हैं । इस प्रकार से ये सभी जनजातीय तथा लोक कला शैलियों के सभी रूपों में अन्तर्निहित जटिल और सुव्यवस्थित पारस्परिक प्रभाव दृष्टान्त द्वारा हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है । कला को जीवन से हटकर किसी भी रूप में, एक मात्र अलंकरण अथवा मनोरंजन के रूप में ही नहीं बल्कि इसके एक मूलभूत भाग के रूप में देखा जाता है ।
राजाओं और शासकों के संरक्षणाधीन, कुशल नर्तक और गायकों तथा कारीगरों को सम्पूर्णता तथा परिष्करण के उच्चतर स्तरों तक अपनी कुशलताओं में विशेषज्ञता हासिल करने एवं परिष्कृत करने के लिए प्रोत्साहित किया गया । धीरे-धीरे, मन्दिर और महल के लिए विकसित कला के शास्त्रीय रूप द्वितीय ईस्वी शताब्दी के आस-पास और तत्पश्चात् शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य के अधीन अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गए और तब विस्तृत शोध-प्रबंध पुस्तक-नाट्यशास्त्र एवं कामसूत्र में सम्पूर्णता के सिद्धांत निर्धारित किए गए जिनका आज भी पालन किया जा रहा है । युगों से एक दूसरे के विरोधी राजा और नवाब सर्वाधिक प्रसिद्ध कलाकारों तथा अभिनेताओं को आकर्षित करने के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा किया करते थे ।
इस प्रकार जहां शास्त्रीय कलाएं अपनी लोक जड़ों से भिन्न हो गईं, वहीं वे इनसे कभी भी पूरी तरह से विमुख भी नहीं हुई, यहां तक कि आज भी एक ओर जनजातीय और लोक शैलियों के बीच तो दूसरी ओर शास्त्रीय कला में एक पारस्परिक समृद्धिकारी संवाद चल रहा है । शास्त्रीय कला को नई लोक शैलियों से शक्ति मिलती रहती है और बदले में यह उन्हें नए विषयों की अन्तर्वस्तु उपलब्ध कराता है । इसके अतिरिक्त, जबकि कला संबंधी इनकी जड़ों से जुड़ाव इन्हें कला के क्षेत्रीय शास्त्रीय रूपों से पृथक् कर देता है, समूचे भारत में कला के असंख्य रूप सामान्य शास्त्रीय धर्मों और पौराणिक विषयों से बंधे हुए हैं ।
भारत में धर्म, दर्शन और मिथक को उनके कला रूपों से पृथक नहीं किया जा सकता । नृत्य और संगीत किसी भी प्रकार के समारोह से अनिवार्य रूप से बंधे हुए हैं । विवाह, जन्म, राज्याभिषेक, नए घर या शहर में प्रवेश, अतिथि का स्वागत, फसल का समय, इनमें से कोई भी या फिर सभी में नाच तथा गाने के अवसर है ।
संगीत और नृत्य संभवत: कला के सबसे अधिक सशक्त रूप हैं तथा ये मानव के मनोभावों तथा अनुभवों की समूची स्थिति को सहज ही व्यक्त करते हैं । समूचे भारत में जनजातीय क्षेत्र हैं और प्रत्येक जनजाति का अपना विशिष्ट संगीत तथा नृत्य होते हुए भी एक समान रूप सभी के लिए है जिसमें पुरुष एवं महिलाएं हाथ पकड़ कर अलग-अलग कतार बनाते हैं एवं पग थिरकते हैं, धीरे-धीरे ताल में तेजी आती है और उत्साह में उत्तरोत्तर उच्च स्तर का निर्माण होता है ।
कृषि से जुड़े समुदाय का लोक संगीत और नृत्य दैनिक जीवन की लय ऋतुओं के बदलने, कृषि चक्र की विशिष्टताओं, धार्मिक पर्वों और जन्म तथा विवाह जैसी महत्वपूर्ण घटनाओं को मनाते हैं जो जीवन की तेजी को रोक देते हैं । लोक संगीत और नृत्य जीवन संबंधी सामान्य विषयों तथा चिन्ताओं को सांझा करते हैं, और इनमें रूपों की एक व्यापक विविधता उपलब्ध है । कश्मीर से दार्जिलिंग तक समूचे हिमालय क्षेत्र में लोक नर्तक शस्त्रों और दोलन को शालीनता से तरंगी लय से जोड़ते हैं, गेहूँ की फसल बोने को एक अवसर के रूप में मनाते हैं । एक दो तरफा ड्रम, ढोलक की थाप पर कोई भी स्वयं को रोक नहीं पाता है और नर्तकों के जोड़े एक वृत्त के मध्य में कलाबाजी के जटिल करतबों को करते है । महिलाएं गिद्दा करती हैं, जिसकी विशेषता भी सहज ऊर्जा ही है । राजस्थानी महिलाएं अपनी लहराती हुईं ओढ़नी से चेहरे को ढंक कर रखती हैं और जब वे घूमर नृत्य करते हुए घूमती हैं तब वे रंग का भंवर बन जाती हैं । जबकि गुजरात में सह नर्तकियां डण्डे लेकर एक वृत्त में प्रसिद्ध गरबा नृत्य करती हैं । पुरुष दांडिया रास करते हैं जो इसी नृत्य का एक अधिक ओजस्वी रूप है, जिसमें वे घूम-घूम कर उछलते हैं और नीचे झुकते हैं, महाराष्ट्र के मछलीपालन से जुड़े समुदायों में पुरुष और महिलाएं हाथों में हाथ लेकर एक साथ नृत्य करते हैं तथा महिलाएं पिरामिड बनाने के लिए पुरुषों के कंधों पर चढ़ जाती हैं । इस क्षेत्र की महिलाओं का लावणी नृत्य अदम्य ऐंद्रिकता के लिए उल्लेखनीय है । नृत्य नाटक या लोक रंगशाला के अन्य अनेक रूप भी हैं, जैसे राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार की नौटंकी, गुजरात का भवाई, महाराष्ट्र का तमाशा, बंगाल का जात्रा, कर्नाटक का भव्य यक्षगान और केरल का तय्यम, ये सभी स्थानीय वीरों, राजाओं तथा देवताओं की दन्तकथाओं का वर्णन करते हैं । युद्ध कौशल समूचे देश में दिखाया जाता है और इसे अर्द्ध नृत्य के रूपों में रूढ़ शैली के अनुसार अंकित किया गया है । इनमें पूर्वोत्तर पर्वतीय जनजातियों के मार्शल नृत्य, महाराष्ट्र के लेजिम नृत्य, केरल का कंलारिपट्टु, ओडिशा, पश्चिम बंगाल तथा झारखण्ड की उच्च शैली का छऊ नृत्य भी उल्लेखनीय हैं ।
इन सभी नृत्यों ने एक व्यापक आधार तैयार किया है जिससे शास्त्रीय नृत्य की पुष्टि हुई है । शास्त्रीय नृत्य शैलियां प्रमुख रूप से सात प्रकार की हैं- तमिलनाडु और कर्नाटक का भरतनाट्यम, केरल का शास्त्रीय नृत्य-नाटक कथकली, मणिपुर का मणिपुरी, उत्तर प्रदेश का कथक, ओडिशा का ओडिशी और आन्ध्र प्रदेश का कुचीपुड़ी तथा असम का सत्रिया, जिसे हाल ही में शास्त्रीय नृत्यों की सूची में शामिल किया गया है, प्रसिद्ध है । इनके वर्तमान स्वरूप से इनके दो से तीन सौ वर्षों से भी अधिक पुराने इतिहास का पता नहीं लगाया जा सकता है लेकिन इन सभी का भारत की प्राचीन और मध्यकालीन साहित्यिक, मूर्तिकलात्मक तथा संगीतात्मक परम्पराओं से एवं अपने क्षेत्र विशेष से संबंध है । ये सभी द्वितीय शताब्दी ईस्वी में नाट्यशास्त्र में निर्धारित शास्त्रीय नृत्य के सिद्धांतों का सतत पालन करते प्रतीत होते हैं । नाट्यशास्त्र का श्रेय भरत मुनि को जाता है और यह माना जाता है कि इस बारे में भरत मुनि को सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने बताया था ।
लोक रंगशाला और नृत्य-नाटक की जड़ें शास्त्रीय नृत्य तथा रंगशाला के समान ही थीं, इन दोनों की परम्पराओं के बारे में नाट्यशास्त्र में विस्तार से बताया गया है । कालिदास भारत के सबसे प्रसिद्ध कवि और नाटककार हैं तथा इनके नाटकों का आज भी मंचन किया जाता है । अवध के अन्तिम शासक, नवाब वाजिद अली शाह एक जाने-माने नाटककार थे और उन्होंने अपने राजदरबार में नाटकों का व्यापक रूप से मंचन कराया था ।