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कथकली नृत्य

केरल कई परम्‍परागत नृत्‍य तथा नृत्‍य–नाटक शैलियों का घर है । इनमें सबसे विशिष्‍ट है- कथकली नृत्‍य ।
आज कथकली एक प्रचलित नृत्‍य रूप है । इसे तुलनात्‍मक रूप से हाल ही के समय में उद्भव हुआ माना जाता है । हालांकि यह एक कला है, जो प्राचीन काल में दक्षिणी प्रदेशों में प्रचलित बहुत से सामाजिक और धार्मिक रंगमंचीय कला रूपों से उत्‍पन्‍न हुई है । चाकियारकुत्‍त्, कूडियाट्टम, कृष्‍णानाट्टम और रामानाट्टम- केरल की कुछ अनुष्‍ठानिक निष्‍पादन कलाएं हैं, जिनका कथकली के प्रारूप और तकनीक पर सीधा प्रभाव है । एक दंतकथा के अनुसार जब कालीकट के जमोरिन ने अपने कृष्‍णानाट्टम कार्यक्रम करने वाले समूह को त्रावनकोर भेजने से मना कर दिया, तो कोट्टाराक्‍कारा का राजा इतना क्रुद्ध हो गया कि उसे रामानाट्टम की रचना करने की प्रेरणा हो आई ।

केरल के मंदिरों के शिल्‍पों और लगभग 16वीं शताब्‍दी के मट्टानचेरी मंदिर के भित्तिचित्रों में वर्गाकार तथा आयताकार मौलिक मुद्राओं को प्रदर्शित करते नृत्‍य के दृश्‍य देखे जा सकते हैं, जो कथकली की विशेषताओं को प्रदर्शित करते हैं । शरीर की मुद्राओं और नृत्‍य कला सम्‍बंधी नमूनों के लिए कथकली नृत्‍य शैली केरल की प्राचीन युद्ध सम्‍बंधी कलाओं की ऋृणी है ।

कथकली नृत्‍य, संगीत और अभिनय का मिश्रण है और इसमें अधिकतर भारतीय महाकाव्‍यों से ली गई कथाओं का नाटकीकरण किया जाता है । यह शैलीबद्ध कला रूप है, इसमें अभिनय के चार पहलू- अंगिका, अहार्य, वाचिका, सात्विका और नृत्‍त, नृत्‍य तथा नाट्य पहलुओं का उत्‍कृष्‍ट सम्मिश्रण है । नर्तक अपने भावों को विधिबद्ध हस्‍तमुद्राओं और चेहरे के भावों से अभिव्‍यक्‍त करता है और इसके पश्‍चात् (पद्म) पद्यात्‍मक भाग होता है, जिन्‍हें गाया जाता है । कथकली नृत्‍य शैली अपनी मूलपाठ-विषयक स्‍वीकृति बलराम भरतम् और हस्‍तलक्षणा दीपिका से प्राप्‍त करती है ।

आट्टाक्‍कथा या कहानियों को महाकाव्‍यों तथा पौराणिक कथाओं से चुना जाता है और इन्‍हें उच्‍च स्‍तरीय संस्‍कृत पद्य रूप में मलयालम् भाषा में लिखा जाता है । कथकली साहित्‍य के विशाल भण्‍डार में मलयालम् भाषा के बहुत से लेखकों ने अपना योगदान दिया है ।

कथकली नृत्‍य का संगीत केरल के परम्‍परागत सोपान संगीत का अनुसरण करता है । सोपान संगीत के अन्‍तर्गत मंदिर के मुख्‍य गर्भ गृह (मुख्‍य कक्ष) की ओर जाने वाली सीढियों की पंक्तियों पर अष्‍टपादियों को अनुष्‍ठानिक गान होता है । कथकली नृत्‍य संगीत में कर्नाटक रागों का भी प्रयोग होता है ओर कर्नाटक राग के अन्‍तर्गत राग और ताल, भाव, रस और नृत्‍य के प्रतिरूपों नृत्‍त और नाट्य की पुष्टि करते हैं । वाद्य समूह में, जो केरल की अन्‍य परम्‍परागत निष्‍पादन कलाओं में भी प्रयोग में लाया जाता है, विधिवत् चेंडा, मद्दलम्, चेंगिला, इलत्‍तालम्, इडक्‍का और शंख को सम्मिलित किया जाता है ।

कथकली एक दृश्‍यात्‍मक कला है, जहां पात्र के अनुसार अहार्य, वेशभूषा और श्रृंगार नाट्य शास्‍त्र के सिद्धांतों पर आधारित होता है । पात्रों को कुछ स्‍पष्‍ट रूप से परिभाषित प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है जैसे पच्‍चा, कुत्‍ती, ताढ़ी, करि या मिनुक्‍क् । कलाकार (नर्तक) के चेहरे को कुछ इस प्रकार रंग दिया जाता है कि वह एक मुखौटे का आभास दिता है । होठों, भौहों और पलकों को उभार कर दिखाया जाता है । चेहरे पर चट्टी बनाने के लिए पिसे हुए चावल का लेप और चूने का मिश्रण लगाया जाता है, जिससे चेहरे का श्रृंगार उभर कर आता है ।

कथकली नृत्‍य मुख्‍यतय: व्‍याख्‍यात्‍मक होता है । कथकली प्रस्‍तुतीकरण में पात्रों को मोटे तौर पर सात्विका, राजसिक और तामसिक वर्गों में विभक्‍त किया जाता है । सात्विका चरित्र कुलीन, वीरोचित, दानशील और परिष्‍कृत होते हैं । पच्‍चा में हरा रंग प्रमुख होता है और सभी पात्र किरीट (मुकुट) धारण करते हैं । कृष्‍ण और राम मोर पंखों से अलंकृत विशेष मुकुट पहनते हैं । इंद्र, अर्जुन ओर देवताओं जैसे कुछ कुलीन (राजसी) पात्र पच्‍चा पात्र होते हैं ।

कथी प्रकार के पात्र खलनायक पात्र होते हैं पर फिर भी ये राजसिक वर्ग के अंतर्गत आते हैं । कभी-कभी ये रावण, कमसा और शिशुपाल जैसे महान् योद्धा और विद्वान् भी होते हैं । मूँछें और चुट्टीप्‍प् नामक छोटी मूठ (घुण्‍डी) को नाक के अग्रभाग और एक अन्‍य को माथे के बीच में लगाया जाता है । यह कथी पात्र के श्रृंगार की विशेषता है । ताढ़ी (दाढ़ी) वर्ग के पात्र हैं- चुवन्‍ना ताढ़ी (लाल दाढ़ी) वेल्‍लाताढ़ी (सफेद दाढ़ी) और करूत्‍ता ताढ़ी (काली दाढ़ी) । वेल्‍लाताढ़ी या फिर सफेद दाढ़ी वाला चरित्र सामान्‍यतया हनुमान का होता है । इसके लिए नर्तक बन्‍दर की वेशभूषा वाले वस्‍त्र भी पहनता है । करि वर्ग के पात्र. काला रंग जिनके मेकअप का आधार होता है, वह काली वेशभूषा पहनते हैं और इस वर्ग के पात्र शिकारी या जंगल वासी का अभिनय करते हैं । इनके अतिरिक्‍त यहां मिनुक्‍क् जैसे निम्‍न वर्ग के पात्र होते हैं, जिसमें स्त्रियां और ऋृषि-मुनि आते हैं ।

श्रेष्‍ठ मानवीय प्रभाव उत्‍पन्‍न करने के लिए वेशभूषा और श्रृंगार विस्‍तुत तथा डिजाइन युक्‍त होता है । कथकली नृत्‍य के लिए श्रृंगार की प्रक्रिया को तेप्‍प् चुट्टीकुत्‍त् और उडुत्‍तुकेट्ट में वर्गीकृत किया जाता है । तेप्‍प् को कलाकार स्‍वयं ही कर लेता है । प्रत्‍येक पात्र या कलाकार का भिन्‍न तेप्‍प् होता है । श्रृंगार का दूसरा चरण विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है, जो श्रृंगार/साज-सज्‍जा में विशिष्‍टता रखते हैं, बड़ा घेरदार घाघरा (स्‍कर्ट) इस नृत्‍य को करते समय पहना जाता है,‍ जिसे उडुत्‍तुकेट्ट कहा जाता है ।

कथकली के अतिरिक्‍त अन्‍य किसी नृत्‍य शैली में पूरी तरह से शरीर के सभी अंगों का उपयोग नहीं होता । इस नृत्‍य शैली के तकनीकी विवरण में चेहरे की मांसपेशियों से लेकर अंगुलियां, आंखें, हाथ और कलाई सभी कुछ आ जाता है । चेहरे की मांसपेशियों की महत्‍वपूर्ण भूमिका होती है । नाट्य शास्‍त्र के वर्णन के अनुसार अन्‍य किसी भी नृत्‍य शैली में भौहों, आंख की पुतलियों और निचली पलकों की गति का इतना प्रयोग नहीं किया जाता, जितना कथकली में किया जाता है । शरीर का सारा भार पैरों के बाहरी किनारों पर होता है, जो थोड़े झुके हुए और मुड़े हुए होते हैं ।

कलाशम् विशुद्ध नृत्‍य के क्रम होते हैं, जिनमें कलाकार को स्‍वयं को अभिव्‍यक्‍त करने और अपनी कुशलताओं का प्रदर्शन करने की पूरी छूट होती है । उछालें (कूद), जल्‍दी से लिये जाने वाले चक्‍कर (घुमाव), छलांगें और लयात्‍मक संयोजन सब मिलकर कलाशम् बनाते हैं । इसे देखने में मजा आता है ।

कथकली नृत्‍य का प्रदर्शन केलिकोटट् से आरम्‍भ होता है, जिसके द्वारा दर्शकों को आकर्षित किया जाता है । इसके बाद तोडयम् होता है । यह धार्मिक नृत्‍य होता है, जिसमें एक या दो कलाकार भगवान् के आर्शीवचनों को ग्रहण करने के लिए प्रार्थना करते हैं । केलिकोटट् शाम को होने वाले कार्यक्रम की औपचारिक घोषणा होती है । इस समय खुले स्‍थान पर कार्यक्रम की जगह पर ढोल और मंजीरे बताये जाते हैं । इसके अंत: भाग के रूप में पुराप्‍पाड् नामक एक विशुद्ध नृत्‍त खण्‍ड प्रदर्शित किया जाता है । इसके बाद मेलाप्‍पदम् में संगीतकार तथा ढोलवादक मंच पर अपनी कुशलता का प्रदर्शन कर दर्शकों का मनोरंजन करते हैं । तिरानोक्‍क्, पच्‍चा या मिनुक्‍क् के अलावा सभी कलाकारों का मंच पर प्रवेश होता है । इसके पश्‍चात् नाटक या चुने हुए नाटक का एक निश्‍चित दृश्‍य आरम्‍भ होता है ।

इलाकियाट्टम प्रदर्शन या प्रस्‍तुतीकरण का वह भाग है, जहां कलाकार (पात्र) को अभिनय में अपनी श्रेष्‍ठता को प्रदर्शित करने का अवसर प्राप्‍त होता है । प्रदर्शन के अधिकतर समय में नर्तक कलाकार स्‍वयं को चोल्लियाट्टम में व्‍यस्‍त रखता है । अर्थात् संगत करने वाले संगीतकारों द्वारा गाये गये पद्यों के शब्‍दों पर ही मुख्‍य रूप से अभिनय करना ।

कवि वल्‍लतोल की सेवाओं के परिणामस्‍वरूप इस शास्‍त्रीय नृत्‍य रूप से नयी प्रेरणा प्राप्‍त की और आज समाज में होने वाले परिवर्तनों की आवश्‍यकताओं के अनुरूप, इसमें बहुत कुछ नवीनीकरण भी किये गये हैं ।