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मोहिनीअट्टम नृत्य

मोहिनीअट्टम की शाब्दिक व्याख्या ‘‘मोहिनी’’ के नृत्य के रूप में की जाती है, हिन्दू पौराणिक गाथा की दिव्य मोहिनी, केरल का शास्त्रीय एकल नृत्य-रूप है ।

पौराणिक गाथा के अनुसार भगवान विष्णु ने समुद्र मन्थन के सम्बंध में और भस्मासुर के वध की घटना के सम्बं‍ध में लोगों का मनोरंजन करने के लिए ‘‘मोहिनी’’ का वेष धारण किया था ।

यह केवल स्त्रियों द्वारा निष्पादित किया जाता है ।

मोहिनीअट्टम का उल्लेख मज्हमंगलम नारायणन नम्बु‍तिरि द्वारा 1709 में लिखित ‘‘व्यवहारमाला’’ पाठों और बाद में महान कवि कुंजन नम्बियार द्वारा लिखित ‘‘घोषयात्रा’’ में पाया जाता है ।

केरल के इस नृत्य रूप की संरचना त्रावणकोर राजाओं महाराजा कार्तिक तिरुनल और उसके उत्तराधिकारी महाराजा स्वाति तिरुनल (18वीं-19वीं शताब्दी ईसवी) द्वारा आजकल के शास्त्रीय स्वरूप में की गई थी ।

‘‘मोहिनीअट्टम’’ की लोकप्रियता 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में आजकल के त्रिचुर और पालघाट जिलों को मिलाकर क्षेत्र तक सीमित थी ।

उसका उद्भव केरल के मन्दिरों में हुआ । यद्यपि इसके उद्भव की सही-सही अवधि ज्ञात नहीं है तथापि स्त्री मन्दिर नृतकियों के समुदाय की विद्यमानता को सिद्ध करने के लिए साक्ष्य मौजूद हैं । जिन्होंने मन्दिर पुजारियों द्वारा उच्चारित मंत्रों की अभिव्यक्ति मुद्राएं शामिल करके मन्दिर रीति-रिवाजों में सहायता प्रदान की ।

भिन्न-भिन्न काल अवधियों के दौरान नृतकियों को भिन्न–भिन्न नामों से पुकारा जाता था ।

तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के लगभग लिखित ‘‘कौटिल्य के अर्थशास्त्र’’ में देवदासियों और नृत्य में उनके प्रशिक्षण का उल्लेख मिलता है ।

उन्हें ‘‘ताली नंगई अथवा ननगाची’’ (सुन्दर हाथवाली) ‘‘दासी’’ (सेविका) ‘‘तेवितिचि’’ अथवा ‘‘देवा अडि-अची’’ (जो भगवान के पैरों में सेवा करती है), ‘‘कुथाचि’’ (जो कुथु अथवा नृत्य निष्पादित करती थी) ।

उनके नृत्यों को ‘‘नंगल नाटकम’’ ‘’दासियाट्टम’’, ‘’तेवितिचियाट्टम’’ आदि के नाम से जाना जाता था । ‘’ननगीअर्स’’, जो नम्बियार समुदाय की स्त्रियाँ होती हैं, अभी भी एकमात्र रूप से मन्दिर रीति-रिवाजों के लिए निर्धारित नृत्य की कठोर संहिता का पालन करती हैं ।

ननगिआर कुथु के निष्पादन के पहले दिन, नृत (विशुद्ध नृत्य) को अभिनय की तुलना में अधिक महत्व दिया जाता है ।

भरतनाट्यम, ओडिसी और मोहिनीअट्टम की एक समान प्रवृत्ति है और उन सभी का उद्भव ‘’देवदासी’’ नृत्य से हुआ ।

कुछ विद्वानों का मत है कि 19वीं शताब्दी ईसवी के आस-पास, तमिलनाडु के शासक पेरूमालों ने तिरुवनचिकुलम (वर्तमान में कोडुगंल्लुर, केरल) में अपनी राजधानी के साथ चेरा साम्राज्य पर शासन किया ।

ये शासक अपने साथ उत्तम नृतकों को लाए जो मन्दिरों में बस गए, जिनका निर्माण राजधानी के विभिन्न भागों में किया गया था ।

उनके नृत्य को ‘’दासियाट्टम’’ कहा जाता था ।

‘’दासियाट्टम’’ की विद्यमानता की ‘’सिलाप्पनटीकरम’’ महाकाव्य से भी पुष्टि होती है जिसे 5वीं शताब्दी ईसवी में चेरा राजकुमार इल्लंगों अडिक्कदल द्वारा लिखा गया था ।

चेरा साम्राज्य अथवा पेरुमाल शासन के पतन और बाद में समाजार्थिक परिवर्तनों के साथ इन ‘’दासियों’’ को मन्दिर परिसरों से बाहर जाने के लिए बाध्य किया गया ।

कुछेक ननगिअर्स के साथ जुड गईं, जो केरल के अन्य क्षेत्रों के मन्दिरों में रहते और निष्पादन करते थे तथा उन्होंने ननगिआर कुथु को बढ़ावा दिया ।

कुछेक अन्य थे जिन्होंने समृद्व सामन्त प्रमुखों और योद्धाओं का मनोरंजन करते थे । इससे ‘’रसियाट्टम’’ का गम्भीर अवनयन हुआ जिसकी वजह से इसका पतन और अन्तंत: लुप्त हो गया ।

‘’दासियाट्टम’’ को तन्जोर चतुष्कों (पोन्नाया, चिन्नाया, शिवानन्दन और वडीवेलु) द्वारा पुनसज्जिवित किया गया । वे नन्तुवन्स (संगीत शिक्षक) थे जिन्होंने आजकल के ‘’भरतनाट्यम’’ और ‘’मोहिनीअट्टम’’ की संरचना की ।

तन्‍जोर भाइयों में से एक ‘’वडीवेलु ने देवदासी ‘’सुगन्‍धावल्‍ली’’ के साथ ‘’महाराजा स्‍वाति तिरुनल’’ की शरण ली ।

स्‍वाति तिरुनल गद्दी पर आसीन हुआ जबकि वह 1829 में केवल 16 वर्ष की आयु का था । उसने ललित कलाओं को विशेष रूप से संगीत और नृत्‍य को प्रोत्‍साहित किया ।

उसके शासन के दौरान भारत के सभी भागों से अनेक कलाकार और विद्वान तिरुवनन्‍तपुरम आए । उसी समय, स्‍वाति, अपने दरबारी संगीतकारों के साथ (किलिमनूर, विद्वान कोथीतमपुरम और इरायीम्‍मन टम्‍पी) ‘’मोहिनीअट्टम’’ के विकास कार्य में लगे थे ।

वडीवेलु ने एक उचित रंगपटल के साथ ‘’मोहिनीअट्टम’’ की पुनसंरचना की जिसमें कोलकेतु (मोहिनीअट्टम में पहली मद) जातिस्‍वरम, पदावर्णम, पदम और तिलाना सम्मिलित था । सुगन्‍धावल्‍ली ने उनका निष्‍पादन किया ।

स्‍वाति ने स्‍वयं मलयालम, तेलुगु और संस्‍कृत में पद्मों की रचना की जिन्‍हें नृतकों ने बड़ी खुशी से अपनाया ।

तथापि, इस शाही सरंक्षक ‘महाराजा स्वाति तिरुनल’ को जल्द और असमय मृत्यु से इस नृत्य की एक अन्य निराशापूर्ण अवधि शुरू हुई, जिसका मुख्य कारण शाही संरक्षण का अभाव था ।

‘मोहिनीअट्टम’ को ‘महाकवि वल्लाटोल’ के कठोर प्रयासों से एक नया जीवन मिला, जो केरल के एक कवि साहित्यकार थे, तथा कला के एक अन्य कदरदान थे । कवि, इसे एक विशिष्ट शास्त्रीय एकल शैली का सम्मान प्रदान करने में सफल हुए ।

वर्ष 1930 में ‘वल्लावटोल’ ने ‘केरल कलामण्डलम्’ की स्थापना की, जो नत्तुवनार, गुरू कृष्ण पाणिकर और कल्याणी अम्मा के साथ, ‘मोहिनीअट्टम’ के पहले नियमित शिक्षक के रूप में, केरल के कला स्वरूपों में प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए एक अग्रणी संस्थान था ।

उनकी शिष्या श्रीमती तनकामणि गोपीनाथ (वहाँ पाठ्यक्रम शुरू किए जाने पर केरल कलामण्डलम में मोहिनीअट्टम के लिए दाखिल प्रथम शिष्य, चिन्नामु अम्मा और कल्याणी कुट्टी अम्मा, इस आकर्षक नृत्य शैली के पथ-प्रदर्शक बन गए ।

कलामण्डलम् शिक्षण पद्धति में ‘मोहिनीअट्टम’ की केवल शास्त्रीय पद्धति को स्वीकार किया जाता था ।

मोहिनीअट्टम नृत्य की खास-खास बातें

‘मोहिनीअट्टम’ की विशेषता, बिना किसी अचानक झटके अथवा उछाल के लालित्यपूर्ण, ढलावदार शारीरिक अभिनय है ।

यह, ‘लस्प’ शैली से संबंधित है जो स्त्रीत्वपूर्ण, मुलायम और सुन्दर है । अभिनय में सर्पण द्वारा बल दिया जाता है, तथा पंजो पर ऊपर और नीचे अभिनय होता है, जो समुद्र की लहरों तथा कोकोनट पाम वृक्षों अथवा खेत में धान पौधों के ढलान से मिलता-जुलता है ।

पाद कार्य संक्षिप्त नहीं तथा कोमलता के साथ प्रस्तुत किया जाता है । हस्त भंगिमाओ को महत्व दिया जाता है तथा मुखाभिनय विलक्षण मुखीय अभिव्यक्ति के साथ ।

बहुत से अभिनय स्त्री मंदिर नृत्यों से नकल किए गए हैं जैसे कि ननगियर कुथु और लोक नृत्य जैसे कि ‘कईकोत्तीकली’ जिसे तिरुवतिराकली के नाम से भी जाना जाता है ।

‘तिरुवतिराकली’ एक विशुद्ध नृत्य‍ है ।

दूसरी ओर ‘मोहिनीअट्टम’ के अन्तर्गत अभिनय पर बल दिया जाता है ।

नृतक ‘पद्मों’ और ‘वर्नामों’ के विषय और भावों के साथ मेल खाता है ।

हस्त भंगिमाएं मुख्यत: ‘हस्तालक्षण दीपिका’ से अपनाई गई हैं, जो एक पाठ है जिसका पालन कथकली द्वारा किया जाता है ।

कुछेक ‘नाट्य शास्त्र’ और ‘अभिनय दर्पण’ से भी अपनाए गए हैं । भंगिमाएं और मुखीय अभिव्यक्ति स्वाभाविक (ग्राम्य) और वास्तविक (लोकधर्मी) के साथ मिलती-जुलती हैं, न कि नाट्य अथवा कठोर परम्परा (नाट्यधर्मी) के साथ ।

पारम्परिक रंगपटल के अन्तर्गत ‘’चोल्लुकेत्तु’’ ‘‘पद्मावरणम’’, ‘’पैद्म तिलाना’’ ओर ‘’स्लो‍कम’’ सम्मिल्लित हैं । इसके अलावा, इन दो मदों के अन्तर्गत ‘पंडाट्टम’ और ‘ओमानातिंकल’ (लुल्लबी) भी, जिसे वलाटोल द्वारा प्रारम्भ किया गया था, लोकप्रिय है और उसे प्राय: गायन में शामिल किया जाता है ।

अधिकांश रचनाएं, जो रंगपटल में सम्मिलित हैं, स्वाति तिरूनल द्वारा रचित हैं जिनके अन्तर्गत ‘’साहित्य भाव’’ अर्थात साहित्यिक सामग्री पर बल दिया जाता है ।

शैली के अन्तर्गत मुखीय अभिव्यक्तियों को और हस्त मुद्राओं को, शुद्व नृत्य अथवा पादकार्य और शारिरिक हाव-भाव के मुकाबले, अधिक महत्व दिया जाता है ।