देश के विभिन्न क्षेत्रों से सांस्कृतिक परम्पराएं भारत के प्रादेशिक क्षेत्रीय संगीत की समृद्ध विविधता को परिलक्षित करती हैं । प्रत्येक क्षेत्र की अपनी विशेष शैली है ।
जनजातीय और लोक संगीत उस तरीके से नहीं सिखाया जाता है जिस तरीके से भारतीय शास्त्रीय संगीत सिखाया जाता है । प्रशिक्षण की कोई औपचारिक अवधि नहीं है। छात्र अपना पूरा जीवन संगीत सीखने में अर्पित करने में समर्थ होते हैं । ग्रामीण जीवन का अर्थशास्त्र इस प्रकार की बात के लिए अनुमति नहीं देता । संगीत अभ्यासकर्ताओं को शिकार करने, कृषि अथवा अपने चुने हुए किसी भी प्रकार का जीविका उपार्जन कार्य करने की इजाजत है।
गावों में संगीत बाल्यावस्था से ही सीखा जाता है और इसे अनेक सार्वजनिक कार्यकलापों में समाहित किया जाता है जिससे ग्रामवासियों को अभ्यास करने और अपनी दक्षताओं को बढ़ाने में सहायता मिलती है ।
संगीत जीवन के अनेक पहलुओं से बना एक संघटक है, जैसे विवाह, सगाई एवं जन्मोत्सव आदि अवसरों के लिए अनेक गीत हैं । पौधरोपण और फसल कटाई पर भी बहुत से गीत हैं । इन कार्यकलापों में ग्रामवासी अपनी आशाओं और आंकाक्षाओं के गीत गाते हैं ।
संगीत वाद्य प्राय: शास्त्रीय संगीत में पाए जाने वाले वाद्यों से भिन्न हैं। यद्यपि तबला जैसे वाद्य यंत्र कभी-कभी अपरिष्कृत ढोल, जैसे डफ, ढोलक अथवा नाल से अधिक पसंद किए जाते हैं । सितार और सरोद, जो शास्त्रीय संगीत में अत्यंत सामान्य हैं, लोक संगीत में उनका अभाव होता है । प्राय: ऐसे वाद्य यंत्र जैसे कि एकतार, दोतार, रंबाब और सन्तूर, किसी के पास भी हो सकते हैं । उन्हें प्राय: इन्हीं नामों से नहीं पुकारा जाता है, किन्तु उन्हें उनकी स्थानीय बोली के अनुसार नाम दिया जा सकता है । ऐसे भी वाद्य हैं जिनका प्रयोग केवल विशेष क्षेत्रों में विशेष लोक शैलियों में किया जाता है । ये वाद्य असंख्य हैं ।
शास्त्रीय संगीत वाद्य कलाकारों द्वारा तैयार किए जाते हैं जिनका कार्य केवल संगीत वाद्य निर्मित करना है । इसके विपरीत लोक वाद्यों को सामान्यत: खुद संगीतकारों द्वारा विनिर्मित किया जाता है ।
सामान्यत: यह देखा जाता है कि लोक वाद्य यंत्र आसानी से उपलब्ध सामग्री से ही बनाये जाते हैं । कुछ सांगीतिक बाद्य यत्रों को बनाने में आसानी से उपलब्ध चर्म, बॉंस, नारियल खोल और बर्तनों आदि का प्रयोग भी किया जाता है।
रसिया गीत, उत्तर प्रदेश
बृज जो भगवान कृष्ण की आदिकाल से ही मनोहरी लीलाओं की पवित्र भूमि है, रसिया गीत गायन की समृद्ध परम्परा के लिए प्रसिद्ध है । यह किसी विशेष त्योहार तक ही सीमित नहीं है, बल्कि लोगों के दैनिक जीवन और दिन-प्रतिदिन के कामकाज में भी रचा-बसा हैं । ‘रसिया’ शब्द रास (भावावेश) शब्द से लिया गया है क्योंकि रसिया का अर्थ रास अथवा भावावेश से है । यह गायक के व्यक्तित्व और साथ ही गीत की प्रकृति को परिलक्षित करता है ।
पंखिड़ा, राजस्थान
यह गीत खेतों में काम करते समय राजस्थान के काश्तकारों द्वारा गाया जाता है। काश्तकार ‘अलगोजा’और ‘मंजीरा’ बजाकर गाते और बात करते हैं । ‘पंखिड़ा’ शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘प्रेम’ है ।
लोटिया, राजस्थान
‘लोटिया’ त्योहार के दौरान चैत्र मास में गाया जाता है । स्त्रियॉं, तालाबों और कुओं से पानी से भरे ‘लोटे (पानी भरने का एक बर्तन) और कलश (पूजा के दौरान पानी भरने के लिए शुभ समझा जाने वाला एक बर्तन) लाती हैं । वे उन्हें फूलों से सजाती हैं और घर आती हैं ।
पंडवानी, छत्तीसगढ
पंडवानी में, महाभारत से एक या दो घटनाओं को चुन कर कथा के रूप में निष्पादित किया जाता है । मुख्य गायक पूरे निष्पादन के दौरान सतत रूप से बैठा रहता है और सशक्त गायन व सांकेतिक भंगिभाओं के साथ एक के बाद एक सभी चरित्रों की भाव-भंगिमाओं का अभिनय करता है ।
शकुनाखार, मंगलगीत, कुमाऊँ
हिमालय की पहाडियों में शुभ अवसरों पर असंख्य गीत गाए जाते हैं । शकुनाखर, शिशु स्नान, बाल जन्म, छठी (बच्चे के जन्म से छठे दिन किया जाने वाला एक संस्कार), गणेश पूजा आदि के धार्मिक समारोहों के दौरान गाया जाता है ।ये गीत केवल महिलाओं द्वारा बिना किसी वाद्य यंत्र के गाए जाते हैं ।
प्रत्येक शुभ अवसर पर शकुनाखर में अच्छे स्वास्थ्य और लम्बे जीवन की प्रार्थना की जाती है ।
बारहमास, कुमायुँ
कुमाऊँ के इस आंचलिक संगीत में वर्ष के बारह महीनों का वर्णन प्रत्येक माह की विशेषताओं के साथ किया जाता है । एक गीत में घुघुती चिडिया चैत मास की शुरुआत का संकेत देती है । एक लड़की अपनी ससुराल में चिडिया से न बोलने के लिए कहती है क्योंकि वह अपनी मॉं (आईजा) की याद से दु:खी है और दुख महसूस कर रही है ।
मन्डोक, गोवा
गोवाई प्रादेशिक संगीत, भारतीय उपमहाद्वीप के पारम्पजरिक संगीत का भण्डार है । ‘मन्डों’ गोवाई संगीत की परिशुद्ध रचना एक धीमी लय है और पुर्तगाली शासन के दौरन प्रेम, दुख और गोवा में सामजिक अन्यायय और राजनीतिक विरोध से संबंधित एक छंद बद्ध संरचना है ।
आल्हान, उत्तर प्रदेश
बुन्देलखण्ड की एक विशिष्ट गाथा, शैली आल्हा में देखने को मिलती है जिसमें आल्हा और ऊदल, दो बहादुर भाइयों के साहसिक कारनामों का उल्लेख किया जाता है, जिन्होंने महोबा के राजा परमल की सेवा की थी । यह न केवल बुन्देलखण्ड का एक सर्वाधिक लोकप्रिय संगीत है बल्कि देश में अन्यत्र भी लोकप्रिय है ।
आल्हा, सामन्ती बहादुरी की गाथाओं से भरा है, जो सामान्य आदमी को प्रभावित करता है । इसमें समाज में उस समय में विद्यमान नैतिकता, बहादुरी और कुलीनता के उच्च सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला गया है ।
होरी, उत्तर प्रदेश
होरी का इतिहास, इसका विकास और परम्प रा काफी प्राचीन है । यह ‘राधा-कृष्णल’ के प्रेम प्रसंगों पर आधारित है । होरी गायन मूलत: केवल होली त्यो हार के साथ जुडा है । बसन्तर ऋतु के दौरान भारत में होरी के गीत गाने और होली मनाने की परम्पारा प्राचीनकाल से जारी है………..’बृज में हरि होरी मचाई’……………..।
सोहर, उत्तर प्रदेश
सामजिक समारोह समय-समय पर, भिन्न-भिन्न संस्कृतियों को परस्पर जोडने का एक महत्त्वपूर्ण कारक हैं । उत्तर भारत में परिवार में पुत्र जन्मोत्सव में ‘सोहर’ गायन की एक उत्साही परम्परा है । इसने मुस्लिम संस्कृति को प्रभावित किया है तथा उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में रहने वाले मुस्लिम परिवार ‘सोहर गीत’ गाकर पैसा भी कमाते हैं । ‘सोहर गीत’ नि:संदेह दो संस्कृतियों को मिलाने वाले गीत हैं ।
छकरी, कश्मीर
छकरी एक समूह गीत है जो कश्मीर के लोक संगीत की एक सर्वाधिक लोकप्रिय शैली है। यह नूत (मिट्टी का बर्तन), रबाब, सांरगी आरैर तुम्बाकनरी (ऊँची गर्दन वाला मिट्टी का एक बर्तन), के साथ गाया जाता है ।
लमन, हिमाचल प्रदेश
‘लमन’में बालिकाओं का एक समूह, एक छन्द गाता है और लड़कों का एक समूह गीत के जरिए उत्तर देता है । यह घन्टों तक चलता है । यह रुचिकर इसलिए है कि इसमें लड़कियां पहाड़ की चोटी पर गाते हुए शायद ही दूसरी चोटी पर गाने वाले लड़कों का मुख देखती हैं । बीच में पहाड़ होता है जहाँ प्रेम गीत गूँजता है । इनमें से अधिकांश गीत विशेष रूप से कुल्लू घाटी में गाए जाते हैं ।
कजरी, उत्तर प्रदेश
कजरी, वर्षा ऋतु के दौरान उत्तर प्रदेश और निकटवर्ती क्षेत्र में महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला एक लोक गीत है । भाद्र के द्वितीय पक्ष में तीसरे दिन महिलाएं, एक अर्ध-गोलाकार में नृत्य करते हुए पूरी रात गाती हैं ।
कव्वाली
मूलत: कव्वालियॉं ईश्वर की प्रशंसा में गाई जाती थीं । भारत में कव्वाली का आगमन तेरहवीं शताब्दी के आस-पास फारस से हुआ है और सूफियों ने अपने संदेश का प्रसार करने के लिए अपनी सेवाऍं प्रदान कीं । अमीर खुसरो (1254-1325), एक सूफी संत तथा एक प्रवर्तक ने, कव्वाली के विकास में योगदान किया । यह संरचना के एक स्वरूप की बजाए गायन की एक विधि है । कव्वाली एकल और सामूहिक विधियों का एक मोहक एवं परस्पर बदलता उपयोग है ।
टप्पा, पंजाब
टप्पा, पंजाब क्षेत्र में ऊँटों पर सवारी कर विचरने वालों द्वारा प्रेरित अर्ध-शस्त्रीय कठंगीत का स्वरूप है । टप्पा, पंजाबी और प्रश्तो भाषा में रागों में गाया जाता है जिसका सामान्यत: उपयोग अर्ध-शास्त्रीय स्वरूप के लिए किया जाता है । लयबद्ध और द्रुतगीत स्वर के साथ तेजी से ऊपर उठना इसकी विशेषता है ।
पोवाडा, महाराष्ट्र
पोवाडा, महाराष्ट्र की एक पारम्परिक लोक कला शैली है । पोवाडा शब्द का अर्थ,’ शानदार शब्दों में एक कहानी का वृतान्त है । वृतान्त सदैव किसी वीर अथवा घटना अथवा स्थान की प्रशंसा में सुनाया जाता है । मुख्य वृतान्तकर्ता को शाहीर के नाम से जाना जाता है जो लय बनाए रखने के लिए डफ बजाता है । गीत तीव्र होता है और मुख्य गायक द्वारा नियंत्रित होता है जिसका समर्थन मंडली के अन्य सदस्यों द्वारा किया जाता है ।
प्राचीनतम उल्लेखनीय पोवाडा अग्निदास द्वारा रचित अफज़ल खानचा वध (अफज़ल खाँ का वध ) (1659) था, जिसने अफज़ल खाँ के साथ शिवाजी के संघर्ष का वर्णन किया था।
तीज गीत, राजस्थान
तीज, राजस्थान की महिलाओं की बडी भागीदारी के साथ मनाई जाती है । सह श्रावण मास के नए चन्द्र अथवा अमावस्या के बाद तीसरे दिन मनाई जाती है । त्योहार के दौरान गाए जाने वाले गीतों का विषय शिव और पार्वती का मिलन, मानसून की मनमोहक छठा, हरियाला मौसम, मयूर नृत्य आदि के इर्द-गिर्द होता है।
बुर्राकथा, आन्ध्र प्रदेश
बुर्राकथा, गाथा रूप में एक उच्च कोटि की नाटक शैली है । इसमें मुख्य कलाकार द्वारा गाथा वर्णन के दौरान बोतल आकार का एक ड्रम (तम्बूरा) बजाया जाता है । गाथा गायक, मंच नायक की तरह अत्यंत बनी बनाई आकर्षक पोशाक पहनता है ।
भाखा, जम्मू और काश्मीर
लोक संगीत की भाखा शैली जम्मू क्षेत्र में लोकप्रिय है । भाखा का गायन ग्रामवासियों द्वारा फसल काटने के समय किया जाता है । इसे सर्वाधिक मोहक और सुरीला क्षेत्रीय संगीत समझा जाता है । यह, हारमोनियम जैसे वाद्यों के साथ गाया जाता है।
भूता गीत, केरल
भूता गीत का आधार अन्धविश्वास से जुडा है । केरल के कुछ समुदाय भूत- प्रेत को भगाने के लिए भूता रिवाज अपनाते हैं । इस रिवाज के साथ श्रमसाघ्य नृत्य का आयोजन किया जाता है तथा इसकी प्रकृति बडी तीव्र और भयानक होती है ।
दसकठिया, ओडिशा
दसकठिया ओडिशा में प्रचलित गाथा गायन की एक शैली है । दसकठिया शब्द ‘काठी’ अथवा ‘राम ताली’ नामक एक काष्ठ से बने संगीत वाद्य से लिया गया नाम है, जिसका उपयोग प्रस्तुतीकरण के दौरान किया जाता है । प्रस्तुतीकरण एक प्रकार की पूजा है तथा भक्त ‘दास’ की ओर से भेंट है।
बिहू गीत, असम
बिहू गीत अपनी साहित्यिक विषयवस्तु और सांगीतिक विधि दोनों ही दृष्टि से असम की अति विशिष्ट शैली के लोक गीत हैं । बिहू गीत एक खुशहाल नव वर्ष के लिए शुभकामनाओं का प्रतीक हैं तथा नृत्य के साथ-साथ सुख-समृद्धि हेतु एक प्राचीन उपासना की परम्परा जुडी है। बिहू गायन का समय ही एक ऐसा अवसर है जब विवाह योग्य युवा पुरुष और महिलाएं अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान करते हैं और अपने साथी का चुनाव भी करते हैं ।उनकी खुशी गीतों में परिलक्षित होती है ।
साना लामोक, मणिपुर
मणिपुर की पहाडियां और घाटियां दोनों ही संगीत और नृत्य की शौकीन हैं । साना लामोक ‘माईबा(पुजारी)’ द्वारा राज्याभिषेक समारोह के दौरान गाया जाता है । यह बादशाह का स्वागत करने के लिए भी गाया जाता है ।इसे पाखंगबा, प्रधान देवता, की आत्मा को जाग्रत करने के लिए गाया जाता है । ऐसा विश्वास है कि यह गीत जादुई शाक्तियों से प्रभावी है ।
लाई हाराओबा त्योहार के गीत, मणिपुर
लाई हाराओबा शब्द का अर्थ देवी और देवताओं का त्योहार है । इसे उमंग-लाई (वनदेवता) के लिए गाया जाता है । औगरी हेंगेन, सृजन का गीत और हेईजिंग हिराओ, एक आनुष्ठानिक गीत, लाई हाराओबा त्योहार के अन्तिम दिवस पर गाया जाता है ।
साईकुती ज़ई (साईकुती के गीत), मिजोरम
मिजो लोगों को पारम्परिक रूप से, एक ‘गायक जनजाति’के रूप में जाना जाता है । मिजोरम के क्षेत्रीय लोक गीत मिजो लोगों की एक समृद्ध परम्परा है । साईकुती मिजोरम की एक कवयित्री द्वारा रचित गीत हैं जिन्हें योद्धाओं, बहादुर शिकारियों तथा महान योद्धा और शिकारी आदि बनने के इच्छुक युवा व्यक्तियों की प्रशंसा में गाया जाता है ।
चाई हिआ (चाई नृत्य के गीत) , मिजोरम
मिजो रिवाज के अनुसार चपचर कट त्योहार के दौरान न केवल गायन बल्कि नृत्य भी पूरे त्योहार के दौरान जारी रहना चाहिए । गायन और नृत्य के लिए विशेष अवसर को ‘चाई तथा गीतों को ‘चाई हिया’ (चाई गीत) के नाम से जाना जाता है ।
बसन्ती/बसन्त गीत, गढवाल
बसन्त ऋतु का स्वागत गढवाल में एक अनूठे ढंग से किया जाता है । धरती भॉति-भॉति के रंगीन फूलों से सजी होती है । बसन्त पचंमी के अवसर पर फर्श पर चावल के आटे
से रंगोली बनाई जाती हैं और सुन्दर बनाने हेतु गाय के गोबर के साथ हरे जई के बन्डलों का इस्तेमाल किया जाता है । पेड़ों पर झूले बांधे जाते हैं और लोक गीत गाए जाते हैं ।
घसियारी गीत, गढवाल
पहाडों में युवा महिलाओं को अपने पशुओं के लिए घास लाने के लिए दूर-दूर वनों में जाना पडता है । वे वन में समूहों में नाचती और गाती हुए जाती हैं । मनोरंजन के साथ-साथ घसियारी गीत में श्रम के महत्त्व पर बल दिया जाता है ।
सुकर के बियाह, भोजपुरी गीत
भोजपुरी गीतों में सामान्य लोगों के जीवन का वर्णन किया जाता है । इसमें मन की सरल एवं सहज अन्दरूनी भावनाओं को व्यक्त किया जाता है । ग्रामीण लोकगीतों में प्रकृति, ग्रहों और नक्षत्रों की अपनी ही व्याख्याएं हैं । शुक्र और वृहस्पति की कहानी अब भी गाई जाती है – किस प्रकार शुक्र विवाह के आभूषण भूल जाता है और उन्हें लेने के लिए वापस आता है जहां वह अपनी माता को चावल का पानी पीता देखता है जो एक गरीब आदमी का खाना है। अपनी माता से इसके बारे में पूछने पर उसकी माता जवाब देती है कि वह नहीं जानती कि क्या शुक्र की ऐसी पत्नी होगी जो उसे चावल का पानी भी देगी अथवा नहीं । शुक्र अविवाहित रहने का निर्णय लेता है ।
विल्लु पत्तु ‘धनुष गीत’, तमिलनाडु
विल्लु पत्तु तमिलनाडु का एक लोकप्रिय लोक संगीत है । प्रमुख गायक मुख्य निष्पादनकर्ता की भी भूमिका निभाता है । वह प्रमुख वाद्य बजाता है जो धनुष के आकार का होता है । गीत सैद्धान्तिक विषयों पर आधारित होते हैं और अच्छाई की बुराई पर विजय पर बल दिया जाता है ।
अम्मानईवारी, तमिलनाडु
अम्मानईवारी, चोला बादशाह की प्रशंसा में गाए जाने वाले गीत हैं । अम्मानाई एक लकड़ी की गेंद है तथा महिलाएं गेंद खेलते समय उपयुक्त गीत गाती हैं । अम्मानाई का यह खेल अभी भी तमिलनाडु में खेला जाता है ।
भारत के प्रादेशिक संगीत संदर्भित पुस्तकें/वेबसाइड
– ‘कीवर्ड्स ऐण्ड कॉन्सेप्ट्स ऑव् हिन्दुस्तानी क्लासिकल म्युजिक, अशोक दा रानाडे फोक सॉंग्ंस ऑफ गोवा, आर्यन बुक इन्टरनेशनल
भोजपुरी क्षेत्र के विवाह गीत, चन्द्रमणि सिंह
म्युजिक थ्रू दि एजिस्, प्रेमलता वी.