पूर्वी समुद्र तट पर स्थित ओडिशा, ओड़ीसी नृत्य का घर है और भारतीय शास्त्रीय नृत्य के अनेक रूपों में से एक है । इंद्रीय और गायन के रूप में ओड़ीसी प्रेम और भाव, देवताओं और मानव से जुड़ा, सांसारिक और लोकोत्तर नृत्य है । नाट्य शास्त्र में भी अनेक प्रादेशिक विशेषताओं का उल्लेख किया गया है । दक्षिणी-पूर्वी शैली उधरा मगध शैली के रूप में जाती है, जिसमें वर्तमान ओड़ीसी को प्राचीन अग्रदूत के रूप में पहचाना जा सकता है ।
भुवनेश्वर के पास उदयगिरी और ख्ण्डगिरी की गुफाओं से इस नृत्य रूप के, दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के पुरातत्वीय प्रमाण पाए जाते हैं । बाद में अुद्ध प्रतिमाओं के असंख्य उदाहरण, नृत्य करती योगीनियों की तांत्रिक आकृतियां, नटराज और प्राचीन शिव मंदिरों के अन्य दिव्य संगीतकार तथा नीकियां दूसरी सदी ईसा पूर्व से दसवीं सदी ईसवी सन् तक की, नृत्य की इस निरंतर परम्परा का एक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं । यह प्रभाव एक विशिष्ट दर्शन- जगन्नथा के विश्वास या धर्म के संश्लेषण में स्थापित है । यह हिन्दुवाद के साथ लगभग सातवीं सदी र्इसवी सन् में उड़ीसा में स्थापित हुआ, अनेक प्रभवशाली मंदिरों का निर्माण किया गया । तेरहवीं सदी में निर्मित कोणार्क का देदीप्यमान सूर्य मंदिर, इसके नृत्य मण्डप या नृत्य के हॉल सहित मंदिर की इमारत के निर्माण की गतिविधिा का उच्चस्तर है । आज भी पत्थर पर बनी यह नृत्य गतिविधियां ओड़ीसी नतीकियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं ।
शताब्दियों के लिए महरिज इस नृतय की प्रमुख अधिकारिणी रहीं । महरित, जो मुलत: मंदिर की नतीकियां (देवदासी) थीं, धीरे-धीरे शाही दरबारों में काम करने लगीं, जिसके परिणाम स्वरूप कला-रूप का हा्स हुआ । इसी समय के आस-पास लड़कों का एक वर्ग, जिसे गोटूपुआ कहा जाता था, जो कला में प्रवीण था, मंदिर में और लोगों के सामान्य मनोरंजन के लिए भी नृत्य करने लगा । इस शैली के वर्तमान गुरुओं में अनेक गोटूपुआ परम्परा से सम्बन्धित हैं ।
ओड़ीसी एक उच्च शैली का नृत्य है और कुछ मात्रा में शास्त्रीय नाट्य शास्त्र तथा अभिनय दर्पण पर आधारित है । बाद में जदूनाथ सिन्हा के अभिनय दर्पण प्रकाश, राजमनी पत्तरा के अभिनय चंद्रिका और महेश्वर महापात्र के अन्य अभिनय चंद्रिका से अधिकांशत: इसे लिया गया है ।
भारत के अन्य भागों की तरह, रचनात्मक साहित्य ओड़ीसी नतीकियों को प्रेरणा प्रदान करता है और नृत्य के लिए विषय-वस्तु भी उपलब्ध कराता है । यह बात विशेषत: जयदेव द्वारा रचित बारहवीं सदी के गीत गोविन्दा के बारे में सत्य है । इसकी साहित्यिक शैली और कवित शैली की विषय सूची में अन्य उत्कृष्ट कविताएं और नायक-नायिका भाव का एक गहन उदाहरण है । कृष्ण के लिए कवि की भक्ति कार्य से झलकती है ।
ओड़ीसी गुप्त रूप से नाट्यशास्त्र द्वारा स्थापित सिद्धांतों का अनुसरण करता है । चेहरे के भाव, हस्त–मुद्राएं और शरीर की गतिविधियों का उपयोग एक निश्चित अनुभूति, एक भावना या नवरसों में से किसी एक के संकेत के लिए किया जाता है ।
गतिविधि की तकनीकियां दो आधारभूत मुद्राओं-चौक और त्रिभंग के आस-पास निर्मित होती हैं । चौक एक वर्ग (चौकोर) की स्थिति है । यह शरीर के भार के समान संतुलन के साथ एक पुरुषोचित मुद्रा है । त्रिभंग एक बहुत स्त्रीयोचित मुद्रा है, जिसमें शरीर गले, धड़ और घुटने पर मुड़ा होता है ।
धड़ संचालन ओड़ीसी शैली का एक बहुत महत्वपूर्ण और एक विशिष्ट लक्षण है । इसमें शरीर का निचला हिस्सा स्थिर रहता है और शरीर के ऊपरी हिस्से के केन्द्र द्वारा धड़ धुरी के समानान्तर एक ओर से दूसरी ओर गति करता हैं । इसके संतुलन के लिए विशिष्ट प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है इसलिए कंधों या नितम्बों की किसी गतिविधि से बचा जाता है । यहॉं समतल पांव, पदांगुली या ऐड़ी के मेल के साथ निश्चित पद-संचालन हैं । यह जटिल संयोजनों की एक विविधता में उपयोग की जाती है । यहां पैरों की गतिविधियों की बहुसंख्यक संभावनाएं भी हैं । अधिकतर पैरों की गतिविधियां धरती पर या अंतराल में पेचदार या वृत्ताकार होती हैं ।
पैरों की गतिविधियों के अतिरिक्त यहॉं छलांग या चक्कर के लिए चाल की एक विविधता है और निश्चित मुद्राएं मूर्तिकला द्वारा प्रेरित हैं । इन्हें भंगी कहा जाता है, यह एक निश्चित मुद्रा में गतिविधि की समाप्ति के वास्ताविक संयोग है ।
हस्तमुद्राएं नृत्त एवं नृत्य दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । नृत्त में इनका उपयोग केवल सजावटी अलंकरणों के रूप में किया जाता है और नृत्य में इनका उपयोग सम्प्रेषण में किया जाता है ।
ओड़ीसी का नियमानिष्ठ रंगपटल प्रस्तुतीकरण का एक निश्चित क्रम है, जहॉं ‘रास’ की कल्पना की रचना के लिए प्रत्येक क्रमिक एकक का निर्माण साथ ही साथ व्यवस्थित रूप से किया जाता है ।
मंगलाचरण आरम्भिक एकक है, जहॉं नर्तकी हाथों में फूल लिए धीरे-धीरे मंच पर प्रवेश करती है और धरती माता को अर्पित करती है । इसके बाद नर्तकी अपने इष्टदेव को प्रणाम करती है । आमतौर पर मांगलिक शुभारम्भ के लिए गणेश का आह्ववान किया जाता है । एक नृत्त क्रम के साथ एकक का अन्त इष्टदेव, गुरू और दर्शकों को अभिवादन के साथ होता है ।
अगले एकक को बटु कहा जाता है, जहॉं चौक और त्रिभंगी की आधारभूत भंगिमा द्वारा पुरुषोचित और स्त्रीयोचित द्वयात्मकता में से ओड़ीसी नृत्त तकनीक के मूल विचार को प्रकाश में लाया जाता है । इसके साथ बजाया जाने वाला संगीत बहुत सरल है- नृत्य पाठ्यक्रम का सिर्फ एक स्थायी है ।
बटु में नृत्त की बहुत आधारभूत व्याख्या के बाद पल्लवी में गतिविधियों और संगीत के साज-सामान तथा पुष्पण का नम्बर आता है । एक निश्चित राग में एक संगीतात्मक संयोजन का दृश्यात्मक प्रदर्शन नर्तकी द्वारा मद्धम और यथोचित गतिविधियों के साथ किया जाता है । ताल संरचना के अन्दर जटिल नमूनों की विशिष्ट लयात्मक रूपांतरण में संरचना की जाती है ।
अभिनय की प्रस्तुति के द्वारा इसका अनुसरण किया जाता है । उड़ीसा में जयदेव द्वारा रचित बारहवीं सदी के गीत-गोविन्दा के अष्टपदों के नृत्य की सतत् परम्परा है । इस कविता का प्रगीत्व (लयात्मकता) विशेषत: ओड़ीसी शैली के लिए उपयुक्त है । गीत गोविन्दा के अतिरिक्त उपेन्द्र भंज, बालदेव रथ, बनमाली और गोपाल कृष्ण जैसे अन्य ओड़ीसी कवियों की रचनाओं का भी उपयोग किया जाता है ।
रंगपटल का आखिरी एकक, जो शायद एक से ज्यादा पल्लवी और अभिनय पर आधारित एककों का सम्मिश्रण है, को मोक्ष कहा जाता है । पखावज़ पर अक्षरों का वर्णन होता है और नर्तकी धीरे-धीरे घूमती हुई तीव्रता से चरमोत्कर्ष पर पहुंचती है । तब नर्तकी आखिरी प्रणाम करती है ।
ओड़ीसी वादक मण्डल में मूलत: एक पखावज़ वादक (जो कि आमतौर पर स्वयं गुरू होता है ), एक गायक, एक बांसरी वादक, एक सितार या वीणा वादक और एक मंजीरा वादक होता है ।
नर्तकी अलंकृत, चांदी के ओड़ीसी आभूषणों का श्रृंगार करती है और इसमें एक विशेष केश-सज्जा होती है । आजकल आमतौर पर साड़ी सिली हुई होती है और विशिष्ट शैली में पहनी जाती है ।
प्रत्येक प्रस्तुति में यहॉं तक कि एक आधुनिक ओड़ीसी नर्तकी भी देवदासियों या महरिज की धार्मिक निष्ठा में विश्वास रखती है, जहॉं व नृत्य के माध्यम से मोक्ष या मुक्ति को खोजती है ।