नामपद्धतियॉं सैदव अप्रासंगिक नहीं होती हैं, उदाहरण के लिए ‘आधुनिक’ शब्द । इसके अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं । इसी प्रकार से ‘समकालिक या समकालीन’ शब्द है । यहां तक कि ललित कला के क्षेत्र में भी कलाकारों, इतिहासकारों और आलोचकों के बीच भ्रम तथा अनावश्यक विवाद है । वास्तव में, इन सभी के मन में एक ही बात है और तर्क शब्दावली संबंधी जटिलताओं को लेकर ही दिए जाते हैं । यहां अर्थगत प्रयोग में उलझना आवश्यक नहीं है । सामान्यत: रूप से, कुछ लोगों को ऐसा मानना है कि भारतीय कला में आधुनिक युग लगभग 1857 में या इसके आसपास प्रारम्भ हुआ । यह एक ऐतिहासिक आधारवाक्य है । राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय, नई दिल्ली के पास लगभग इस अवधि की कला-कृतियां हैं । पश्चिम में आधुनिक युग का प्रारम्भ सुविधानुसार प्रभाववादियों से माना जाता है । तथापि, जब हम आधुनिक भारतीय कला की बात करते हैं तब हम सामान्यत: बंगाल की चित्रकला शैली से प्रारम्भ करते हैं । क्रम और महत्त्व दोनों ही दृष्टियों से हमें कला के पाठ्यक्रम में चित्रकला, मूर्तिकला और रेखाचित्र-कला के क्रम का पालन करना पड़ता है । इनमें से अन्तिम अर्थात रेखाचित्र-कला का भी अभी हाल ही में विकास हुआ है ।
आमतौर पर कहें तो आधुनिक या समकालीन कला की अनिवार्य विशेषताएं है- कपोल-कल्पना से कुछ स्वतंत्रता, एक उदार दृष्टिकोण को स्वीकृति जिसने कलात्मक अभिव्यक्ति को क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में स्थापित कर दिया है, तकनीक का एक सकारात्मक उत्थान जो प्रचुरोद्भवी और सर्वोपरि दोनों ही हो गया है और कलाकार का एक विशिष्ट व्यक्ति के रूप में उभरना ।
कई व्यक्ति आधुनिक कला को निषिद्ध क्षेत्र नहीं तो वीभत्स अवश्य ही मानते हैं, ऐसा नहीं कि कोई भी क्षेत्र मानव की उपलब्धियों से वंचित हो । अपरिचित से निपटने की सर्वोत्तम विधि यह है कि इसका दृढ़ता से सामना किया जाए । इच्छा-शक्ति, अध्यवसाय और उचित तथा सतत अनावरण अथवा सामना करना परम आवश्यक हैं ।
उन्नीसवीं शताब्दी के समाप्त होते-होते, भारतीय चित्रकला, भारतीय वाद्य चित्रकला के एक विस्तार के रूप में, मुख्य रूप से राजनीतिक और समाजवैज्ञानिक दोनों प्रकार के ऐतिहासिक कारणों की वजह से बीच में ही रूक गई तथा इसमें गिरावट आने लगी एवं क्षीण और विवेकहीन अनुकृति के रूप में इसका हृास होने लगा जिसके परिणामस्वमरूप एक रिक्त स्थान उत्पन्न हो गया जिसे बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों तक भी भरा नहीं जा सका था । देश के कई भागों में जीवित लोक कला के अधिक ठोस रूपों में अतिरिक्त, चित्रकला की ‘बाजार’ और ‘कंपनी’ शैलियों के रूप में मध्यवर्ती अवधि के दौरान कला की कुछ छोटी-मोटी अभिव्यक्तियां ही देखने को मिलती हैं । इसके पश्चात् प्रकृतिवाद की पश्चिमी संकल्पना का उदय हुआ । इसके सर्वप्रथम प्रतिपाद राजा रवि वर्मा थे । भारतीय कला से समूचे इतिहास में इसके समकक्ष कोई नहीं है, जबकि भारतीय साहित्य में यदा-कला कुछ संदर्भ मिलता है ।
इस सांस्कृतिक स्थिति का सामना करने के लिए अवनींद्र नाथ टैगोर ने एक प्रयास किया था जिनके प्रेरित नेतृत्व में चित्रकला की एक नयी शैली अस्तित्व में आई जो प्रारम्भ में स्पष्टत: गृह प्रेम तथा प्रेम सम्बंधी प्रणयी थी । इसने बांग्ला चित्रकला शैली के रूप में तीन दशकों से भी अधिक समय तक अपनी शैली में कार्य किया, इसे पुनरुज्जीवन शैली या पुनरुद्धार-वृत्ति शैली भी कहा जाता है- यह ये दोनों ही थी । प्रारम्भिक वर्षों में समूचे देश में अपने प्रभाव के बावजूद, चालीस के दशक तक इसका महत्त्व कम हो गया था और अब तो यह मृतप्राय: ही है, जबकि पुनरुज्जीवन शैली के योगदान ने चित्रकला की, विगत समय के साथ पूर्णतया एक सफल कड़ी के रूप में नहीं तो एक उत्प्रेरित और नेकनीयत के रूप में सेवा की । कला में उत्तरवर्ती आधुनिक आन्दोलन के लिए उर्वरक भूमि के रूप में भी इसका महत्त्व नगण्य है । आधुनिक भारतीय कला के उद्गम अन्यत्र ही है ।
द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के समय ऐसी राजनीतिक तथा साथ ही साथ सांस्कृतिक किस्म की ताकतों तथा स्थितियों को अवमुक्ति किया जो अभूतपूर्व एवं कदापि नई थीं उसकी, जिसका सामना जितना हम सबने किया उतना ही सामना कलाकार ने अपने अनुभव और अत्यधिक महत्त्व के आधार पर किया । यह वही अवधि थी जब हमारे देश ने स्वतंत्रता प्राप्त की थी । स्वतंत्रता के साथ अभूतपूर्व अवसर भी आए । कलाकार का आधुनिकीकरण के एक सामान्य पाठ्यक्रम से परिचय हुआ और वह विश्व-व्यापी तथा विशेष रूप से पश्चिमी दुनिया के दूरगामी परिणामों से अवगत हुआ । चूंकि वह भारतीय परम्परा तथा विरासत से बहुत दूर कर दिया गया था और इसकी सच्ची भावना से विमुख कर दिया गया था, इसने इस नए अनुभव को उत्सुकतावश अधिक तेजी से एवं अधिक मात्रा में आत्मसात कर लिया । यह स्थिति आज भी समान रूप से विद्यमान है और ऐतिहासिक अनिवार्यता की इसकी अपनी एक गूंज है । यही स्थिति आधुनिक भारतीय साहित्य और रंगशाला की भी है । नृत्य में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया धीमी है और संगीत में तो और भी कम है । जबकि कलाकार ने अपने इस अनुभव से काफी कुछ सीखा है, वह अनजाने में ही कला की एक नई अन्तर्राष्ट्रीय संकल्पना की दौड़ में शामिल हो गया है । हम इसे नवजात पुराने देश की और इसकी प्रारम्भिक दशा के एक भाग की एक प्ररूपी विशेषता मान सकते हैं । जीवन के प्रति सामान्य रूप से हमारा दृष्टिकोण, असंख्य प्रकार की समस्याओं को हल करने के संबंध में समान रुप से उत्तरदायी हैं ।
समकालिक भारतीय चित्रकला की एक मुख्य विशेषता यह है कि तकनीक और पद्धति में एक नवीन महत्व अर्जित कर लिया है । आकार को एक पृथक अस्तित्व माना जाता था और इस पर दिए जाने वाले अधिकाधिक बल के साथ-साथ इसने एक कला-कृति की अंतर्वस्तु को गौण बना दिया । अभी हाल तक स्थिति ऐसी ही थी और अब भी स्थिति कुछ-कुछ ऐसी ही है, आकार को अंतर्वस्तु के एक वाहन के रूप में नहीं माना जाता था । वास्तव में स्थिति विपरीत हो गई थी । इसका अर्थ यह हुआ कि बाह्य तत्वों को प्रेरणा मिली तथा इनका विकास हुआ, तकनीक को अति जटिल बना दिया और अपने अनुक्रम में एक नए सौन्दर्यशास्त्र को जोड़ दिया । चित्रकार ने बड़ी मात्रा में दृष्टि तथा इन्द्रिय स्तर अर्जित कर लिया था : विशेष रूप से वर्णों के प्रयोग के बारे में, अभिकल्प और संरचना की संकल्पना में और गैर-परम्परागत सामग्री को प्रयोग में लाने के संबंध में । चित्रकला वर्ण, संघटन संबंधी युक्ति अथवा मात्र संरचना की दृष्टि से या तो टिकी या फिर गिर गई । कला ने कुल मिलाकर अपनी स्वायत्तता अर्जित कर ली और कलाकार ने अपनी एक व्यक्तिगत स्थिति हासिल कर ली, जो कि पहले कभी नहीं हुआ था ।
दूसरी ओर, हमने कला की समय के साथ अर्जित एकीकृत संकल्पना को खो दिया है, कला की आधुनिक अभिव्यक्ति ने वहां स्पष्टत: एक करवट ली है जहां कोई एक तत्व, जिसने कभी कला को एक हितकारी अस्तित्व बना दिया था, अब शेष के आंशिक या समग्र अपवर्जन के प्रति असाधारण ध्यान का दावा करता है । व्यक्तिवाद में वृद्धि के परिणामस्वरुप और कला के सैद्धान्तिक रूप से पृथक्करण के कारण कलाकारों की लोगों के साथ वास्तविक घनिष्ठता की एक नई समस्या उत्पन्न हो गई थी । कलाकार और समाज के बीच पर्याप्त तथा विशिष्ट परस्पर संबंध के अभाव की वजह से दुर्दशा में वृद्धि हुई थी । जबकि काफी हद तक यह तर्क दिया जा सकेगा कि समकालिक कला की यह विशिष्ट दुर्दशा समाजवैज्ञानिक विवशताओं के कारण हुई है, और यह है कि आज की कला समकालीन समाज की अव्यवस्थापूर्ण स्थितियों का आईना है, हम कलाकार और समाज के बीच दुर्भाग्यकपूर्ण रिक्ति को स्पाष्टत: देख सकते हैं । हमारे अपने क्षितिज से आगे के क्षितिजों के अपने हितकारी पहलू हैं और ये आज की बढ़ती हुई अन्तर्राष्ट्रीय भावना की दृष्टि से असाधारण मान्यता रखते हैं । नए सिद्धान्तों का साझा करने में विशेष रुप से तकनीक और सामग्री की दृष्टि से अन्य लोगों एवं विचारों के साथ सरलतापूर्वक आदान-प्रदान हितकारी है ।
एक बार पुन: उदारता और प्रयोग की शताब्दी के चतुर्थांश की समाप्ति पर बंधनयुक्त अनुभूति के, और चीजों का पता लगाने तथा उन्हें परखने की दिशा में किए गए एक प्रयास के कुछ प्रमाण हैं । मूल्यवान अनुभव और ज्ञान को अन्यत्र ले जाया जा रहा है और इसका मूल्यांकन हो रहा है । अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की अवर्णित विसंगति की दबंगई के विपरीत, प्रेरणा के एक ऐसे वैकल्पिक स्रोत को तलाशने का प्रयास किया गया जिसे समकालिक होने के साथ किसी भी व्यक्ति के अपने देश से होना चाहिए और किसी भी व्यक्ति के वातावरण के अनुकूल होना चाहिए ।
समकालिक भारतीय कला ने रवि वर्मा, अवनींद्रनाथ टैगोर और इनकी अनुयायियों तथा यहां तक कि अमृता शेरगिल के समय से एक लम्बा सफर तय किया है । स्थूल रूप से, इसी प्रवृत्ति का अनुसरण किया गया है । लगभग सभी प्रतिष्ठित कलाकारों ने एक प्रकार की निरूपणीय या चित्र-संबंधी कला से शुरूआत की थी या अन्य प्रभाववाद, अभिव्यक्तिवाद या उत्तर-अभिव्यक्तिवाद से जुड़े रहे । आकार और अन्तर्वस्तु के कष्टिप्रद संबंध को सामान्यत: एक अनुपूरक स्तर पर रखा गया था । फिर विलोपन तथा सरलीकरण के विभिन्न चरणों के माध्यम से, आयाम-चित्रण और तन्मयता एवं अभिव्यक्तिवादी विभिन्न प्रवृत्तियों के माध्यम से, कलाकार लगभग गैर चित्र-संबंधी या समग्र गैर चित्र-संबंधी स्तरों पर पहुंचे थे । कुछेक को छोड़कर अधिकांश कला-विरोधी एवं अल्पज्ञानी वास्तव में हमारे कलाकारों की कल्पनाशक्ति तक पहुंच ही नहीं पाए थे । विफल और उदासीन तन्मयता पर पहुंचने के पश्चात् बैठ कर चिन्तन करने का मार्ग ही शेष रह जाता है । इस घिसी-पिटी प्रवृत्ति का वरिष्ठ और सुस्थापित कलाकारों सहित बड़ी संख्या में कलाकारों ने पालन किया है । शून्य की दिशा में इस यात्रा के प्रतिक्रिया स्वरुप, तीन अन्य मुख्य रुझान है : मुख्य विषय के रुप में मनुष्य की दुर्दशा के साथ विक्षुब्ध सामाजिक अशान्ति और अस्थिरता का प्रक्षेपण, भारतीय चिन्तन और सैद्धान्तिकी में अभिरुचि, तथाकथित तांत्रिक चित्रकलाओं में तथा प्रतीकात्मक महत्त्व की चित्रकलाओं में यथा अभिव्यक्ति, और इन दो प्रवृत्तियों से भी बढ़कर, नई अभिरुचि अस्पष्ट अतियथार्थवादी दृष्टिकोणों में एवं भ्रान्ति में है । इन सबसे बढ़कर अधिक महत्त्वपूर्ण यह तथ्य है कि अब कोई भी आकार और अन्त्रर्वस्तु अथवा तकनीक तथा अभिव्यक्ति के बीच परस्पर विरोध की बात नहीं करता । वास्तव में, और पूर्ववर्ती स्वीकृति के विरोध स्वरुप, लगभग प्रत्येक व्यक्ति इस बारे में आश्वस्त है कि किसी धारणा, संदेश या मनोवृत्ति के रहस्य के संबंध में तकनीक और रूप एकमात्र महत्त्वपूर्ण पूर्वापेक्षा है जो किसी अज्ञात अस्तित्व में प्राण फूंकती हैं जिससे कि एक ऐसे व्यक्ति को अन्य से कुछ भिन्न बनाया जा सकता है ।