समकालीन भारतीय मूर्तिकला की मूलभूत विशेषताएं तथा समस्याएं समकालीन चित्रकला की मूलभूत विशेषताओं एवं समस्याओं के लगभग समान ही हैं । कुछ भी हो, यह महान भारतीय परम्परा से दूर है तथा यह आधुनिक उदार अन्तर्राष्ट्रीय संकल्पना पर कुछ अधिक ही मजबूती से निर्भर करता है ।
यह आंदोलन प्रकृतवाद और आत्मसंतुष्टि के मध्य विक्टोरियाई विचारों पर आधारित रहते हुए अकादमिक शैली में प्रारम्भ हुआ था और अंग्रेजों की बपौती था । इस व्यवहार वैचित्र्य को मुम्बई कोलकाता, चेन्नई और अन्य स्थानों पर इस शताब्दी के आसपास स्थापित कला के सरकारी विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में प्रारम्भ किया गया था । इस तथाकथित यथार्थ अथवा प्राकृतिक विद्यालय की निरर्थक उपलब्ध ने वास्तविक अकादमिक उत्कृष्टता की ऊंचाई को कभी छुआ तक नहीं और युगों से भारतीय मूर्तिकला की प्रतिभा विज्ञान प्रतीकात्मकता तथा धार्मिक आदर्शों से दूर ही रही ।
फिर जब चालीस के दशक में हमारी मूर्तिकला इस दासता से मुक्त हुई तब फिर इसने चित्रकला की ही भांति प्रेरणा हेतु पश्चिम का रुख किया तथा परिणामस्वरूप प्रयोग एवं उदार अभ्यास की समान प्रक्रियाओं का सामना करना पड़ा । तभी से समकालीन भारतीय मूर्तिकला की कहानी अकादमिक से सुपरिभाषित होकर गैर विषयवस्तुवाद तक की एक यात्रा की कहानी बन गई है । हमारा एक नई तथा गैर परम्परागत सामग्री से परिचय कराया गया है । अधिक निश्चित रूप से इसलिए जिससे कि इसे प्रयोग में लाया जा सके । इसमें शामिल हैं धातु की चादर वेल्ड की गई कलाकृतियों के तार प्लास्टिक धातुवस्तु और कूड़ा करकट । हमारे मूर्तिकारों को वातावरण के अनुसार यहां वहां सार्थक परिणाम मिल गए होंगे लेकिन इस उपलब्धि की लोक और जनजातीय कला के क्षेत्र में नवीनीकृत अभिरुचि के रूप में प्राप्त परिणामों से तुलना नहीं की जा सकती । अब भी कुल मिलाकर आकार एवं रूप पॉलिश तथा संरचना और अमूर्तीकरण पर पूर्णरूपेण ध्यान दिया जा रहा है । समकालीन भारतीय मूर्तिकला ने न तो चित्रकला की गति और न ही विविधता को दर्शाया है । चित्रकला के मामले में अर्थपूर्ण आत्मविश्लेषण को आवश्यक ऊंचाई तथा परिप्रेक्ष्य उपलब्ध कराया है जिसे उस प्रतीकात्मक चित्रकला में यात्रा का समापन कहते हैं जो कलाकृति के सुस्पष्ट सचित्र मूलत्वों से भी आगे पहुँच जाती है । गोधूलि के समय निर्जल मरुभूमि में झुके हुए हाँफते ऊँटों के समूह की सामान्य रूप से जीवन में एक प्रासंगिकता है ।
नन्दलाल बोस को अवनीन्द्रनाथ टैगोर के सर्वाधिक प्रतिष्ठित शिष्य के रूप में माना जाता है और इनका कलाकारों की एक से अधिक पीढ़ी पर पर्याप्त प्रभाव था । प्रणाम करती हुई एक महिला की चित्रकला में उसके चित्रण की सरलता तथा प्रत्यक्षता तथा साथ ही लोककला की ओजस्विता का उनकी कलाकृति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव हम देख सकते हैं ।
क्षितीन्द्रनाथ मजुमदार भी अवनीन्द्रनाथ के एक विख्यात शिष्य थे । बसन्त के सुन्दर चित्रण की प्रेरणा का श्रेय भारतीय लघुचित्रों को जाता है । क्षितीन्द्रनाथ अपनी कोमल रंगपट्टिका और अपने आरेखण की मनोहरता तथा गीतात्मक गुण के लिए जाने जाते थे । ये इस दृष्टि से लगभग अद्वितीय हैं ।
जैमिनी राय उपर्युक्त कलाकारों के समकालीन थे लेकिन इन्होंने अन्य की तुलना में अभिव्यक्ति का एक पूर्णरूपेण भिन्न मार्ग अपनाया जिसका उत्तरवर्ती चित्रकारों पर भारी प्रभाव पड़ा था जो बंगाल की लोक परम्परा से अत्यधिक प्रेरित थे । पुजारिनियों की इस चित्रकला में इनकी आकृतियां और विचार प्रत्यक्ष बेजोड़ रूप से रूढ़ अंकित हैंए और इनकी संकल्पना सुस्पष्ट समतल स्थापन और सुदृढ़ रेखाओं में की गई है ।
गगनेंद्रनाथ टैगोर ने भारतीय पुनरुज्जीवन के चित्रकारों से बहुत कुछ साझा किया लेकिन ये सुविख्यात कवि चित्रकार रवीन्द्रनाथ की भांति असाधारण प्रतिमा के एकमात्र व्यक्ति थे । इनकी चित्रकलाओं में जादूगर के इस विलक्षण अध्ययन की ही भांति घनसिद्धान्त संबंधी दृष्टिकोण के साथ काफी कुछ सामान्य है । इनकी चित्रकला व्यक्तिप्रधान प्रकाश तथा छाया की अत्यधिक प्रभावशाली संकल्पना के लिए विशिष्ट हैं ।
अब्दुर रहमान चुगताई बांग्ला शैली से बहुत अधिक प्रेरित हुए थे । ये फारसी विचार और कला से भी समान रूप से प्रभावित हुए थे और इन्होंने इन दोनों के माध्यम से अपने विरही मनोभाव के अनुकूल उमड़ती पंक्तियों तथा एक रंगपट्टिका सहित अपनी स्वयं की एक रोमानी एवं कविसुलभ शैली का विकास किया ।
एक सिर का अध्ययन रवीन्द्रनाथ टैगोर की कृति का एक उदाहरण है जिन्होंने अपने बाद के वर्षों में अदम्य प्रेरणा के अन्तर्गत चित्रकला को अपनाया । उनकी आकृतियां अवचेतन क्षेत्र से स्वप्न और स्वप्नचित्र से प्रकट होती हैं और इनका एक आदिरूपीय गुण होता है ।
जैमिनी राय की ही भांति के श्रीनिवास भी लोक कला तथा ग्रामीण जीवन से अत्यधिक प्रभावित हुए थे । प्रत्यक्षत: सजावटी प्रभावों और रूढ़ अंकन के कारण इनकी कलाकृतियों को जैमिनी राय की कलाकृतियों के समान ही समझना चाहिए । श्रीनिवास को दक्षिण भारत की कला की विरासत और विशेष रूप से तंजावुर तथा लिपाक्षी की भित्ति परम्परा से अधिक प्रेरणा मिली ।
ए.ए. अलमेलकर के साथ हम समकालीन भारतीय चित्रकला के एक भिन्न चरण में प्रवेश करते हैं । यह शैली तकनीक और चित्र संबंधी दृष्टियों से अब भी भारतीय लघु चित्रकला और भित्ति परम्परा से समग्र रूप से प्रभावित होती है लेकिन हम संरचनात्मक समस्याओं के प्रति एक ऐसे अति व्यक्तिपरक दृष्टिकोण को देख सकते हैं जिसने सैद्धान्तिक दृष्टि के एक विचलन को व्यक्त किया है ।
ऊपर जो कुछ भी कहा गया है उसे के.के. हेब्बार की इस साधारण चित्रकला में अनोखे ढंग से एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है । दुल्हन और दूल्हे की लेखाचित्रीय प्रतीकात्मकताएँ श्वेत रंग के अधिक प्रयोग सबसे नीचे संगीतकारों की एक सूची कुल मिला कर संरचनात्मक व्यवस्था की नई संकल्पना की ओर दृढ़तापूर्वक इशारा करते हैं ।
हम लक्ष्मण पई की ‘शरद’ में इस संकल्पना की प्राप्ति और इसकी विशाल सम्भावनाओं की एक झलक देखते हैं । पई के दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य और प्रकृति को अलग नहीं किया जा सकता । मनुष्य और प्रकृति के दो पहलुओं का उत्तम रीति से एक विलक्षण एकीकरण किया गया है । आकृति प्रारम्भिक है लेकिन अत्यधिक अर्थगर्भित ।
जे. स्वामीनाथन द्वारा साठ के दशक की चित्रकलाएं समकालीन भारतीय चित्रकला के एक चरण से संबंध रखती हैं जिनमें हम पुन: स्वदेशी प्रेरणा के स्रोतों की खोज करने का एक प्रयास देखते हैं । शंकुरूप शैली के एक समर्पित जोड़े से वृंदावन में अंकुरित होने वाला तुलसी का पौधा एक ऐसी परिणामी आकृति की एक किस्म है जिसे लेकर स्वामीनाथन ने अति ठोस और व्यक्तिपरक प्रतिमावली का निर्माण किया है ।
वीरेन डे द्वारा प्रकाश की विकिरणकारी और बहुवर्णाभासी संकल्पना ऐसा एक अन्य प्रयास है । वीरेन डे ने जो कुछ भी हासिल किया है वह निराकार प्रकाश एवं आदिम प्रकाश की स्वत:निर्भय संकल्पना की एक दृष्टि है । अंधकारपूर्ण केन्द्र और संकेंद्रित दीप्ति इस दृष्टि पर उत्तम रीति से बल देती है ।
मानव आकृति और भूदृश्यांकन की संकल्पना में समकालीन कलाकार के हाथों से वास्तविक परिवर्तन हुआ है ।एक माता और उसके बच्चों की शैलोज मुखर्जी की एक चित्रकला एक प्रारम्भिक कलाकृति है । संरचना पर बल दिया गया है और ब्योरों के स्थान पर आकृतियों की मूलभूत औपचारिक संकल्पना को लेकर समग्र रूप से चिन्ता व्यक्त की गई है ।
एस.डी. चावड़ा कथकली नर्तकों का चित्र, जिसमें वे अपना शृंगार कर रहे हैंए अतिसावधानीपूर्वक रूपरेखा तैयार करने का उदाहरण प्रस्तुत करता है । इन नर्तकों के सशक्त शरीर तथा उनकी मुद्राओं को अति कुशलतापूर्वक चित्रित किया गया है। आकृति की प्रस्तुति त्रुटिरहित है और चित्र के विभिन्न तत्वों को भली भांति इंगित किया गया है ।
के.जी. सुब्रह्मण्यन का मुर्गा विक्रेता आकृति की कल्पना को और आगे ले जाता है और एक प्रकार से अभिव्यक्ति की अधिक ऊर्जा का अर्जन करता है । उछल कूद करते हुए मुर्गे, दुबला व्यक्ति और मुर्गों को ले जाने वाला ठेला तथा मकानों के अनुलम्ब परिसर की संकल्पना जानबूझ कर की गई है ।
हुसैन ने दो चित्र में आकृतियों की पारस्परिक विषमता में वर्ण की मात्र सोची समझी संकल्पना के अनुसार लघु बना दिया है । आकृति को न्यूनतम ब्योरों के माध्यम से और कम आकार का बना दिया गया है । हुसैन भारतीय जीवन और जनसाधारण विशेष रूप से ग्रामीण जीवन के देहातीपन और नयनाभिराम दृश्य से हमेशा प्रभावित हुए । हुसैन ने वर्षों के दौरान एक असाधारण चित्रकला का सृजन किया है ।
पचास के दशक में सतीश गुजराल एक प्रारंभिक चित्र में एक अर्द्ध अति यथार्थवादी आकृति के माध्यम से विध्वंस के भाव को सुन्दरता से व्यक्त करते हैं । पृष्ठभूमि में अन्तराल का खालीपन, एक ऐसे व्यक्ति का सम्मान जो पूर्ण विफलता और पाशबद्ध स्थिति में हो को इस अनूठी आकृति में एक भाग के रूप में चित्रित किया गया है ।
गणेश पाइन की चित्रकृति मां और बच्चा इतनी सरल नहीं है जितनी दिखाई देती है । इसमें भ्रान्ति की एक हवा है और ऐसा उनकी चित्रकलाओं के संबंध में सामान्य रूप से सच भी है । मां और बच्चा द्वारा दर्शक का सामना करना और आंखों से निरन्तर घूरना चित्रकला के अन्त्र्निहित रहस्य पर बल देता है ।
एक एकीकृत सचित्र संकल्पना का सृजन करने के लिए एक मण्डल परम्परागत और गैर परम्परागत दोनों प्रकार की सामग्री का वर्गीकरण करने का एक संगठन है । पिराजी सागर धातु और पेंट के टुकड़ों के साथ पुरानी लकड़ी तथा उत्कीर्णन के विच्छिन्न फुटकर सामान का प्रयोग करते हैं । परिणाम विरोधाभासी रूप में आधुनिक और परम्परागत दोनों ही हैं । सूर्य के बारे में इस कलाकृति का संबंध दंतकथा से हैं ।
भवनों के अव्यवस्थित रूप से फैले हुए एक परिसर के भूदृश्यांकन की एक चित्रकला एफ एन सूजा की है । यह कलाकार की संरचनात्मक सोच के अनुकूल अत्यधिक व्यक्तिनिष्ठ है । यह जानी पहचानी लगती है लेकिन इसमें अपरिचित का भाव भी है ।
अविनाश चन्द्र की फलोद्यान समान दिशा में भ्रान्ति की वास्तविकता में लगभग काफी आगे तक जाती है । आकाश में प्लवमान सूर्य जैसी सत्ताएं वृक्षों का आकार और पारस्परिक प्रभाव डालने वाले तौर-तरीकों के लयबद्ध समूह इस फंतासी का भाग हैं ।
यहां मकान ही मकान हैं । इनमें से अधिकांश का कोई वर्णन नहीं हो सकता है लेकिन कुछ की विशेषता है । एन एस बेन्द्रे द्वारा निर्मित एक मकान है जिसकी असाधारण विशेषता है । यह अपने आप में एक चित्र है । बेन्द्रे की कला कृतियां प्रत्येक तत्त्व पर बारीकी से बल देती हैं ताकि इस अनोखे मकान की अनिवार्य आत्मा को हासिल किया जा सके ।
डेढ़ से भी अधिक दशक के दौरान शान्ति दवे एक अलग ही शैली में चित्रकला को आगे बढ़ा रहे हैं जो कि एक भ्रामक साकार रूप है जिसे हम छाया कहते हैं । निस्संदेह यह एक सुस्पष्ट गैर वस्तुनिष्ठ आभास है जो कठिन परिश्रम और यथा समय स्वीकार्य ऑयल पेंट सहित मोम एवं दग्घ जैसी सामग्री के गैर परम्परागत प्रयोग द्वारा निष्पादित की जाती है । ये सतह में जीवन का संचार और संरचना या सृजन करने के लिए लोक आकृतियों सहित ब्लाकों आदि का प्रयोग करते हैं । अन्त में हम एक ऐसी दुनिया का अनुभव करते हैं जो पुरानी और नई दोनों ही हैं ।
गायतोन्डे की प्रारम्भिक कला कृतियों में से एक गैर वस्तुनिष्ठ है । व्यापक स्थान में लाल और अन्य रंगों की पट्टियां प्रवाहित हो रही हैं जिनका प्रतीकात्मक अथवा सुस्पष्ट रूप में कोई अर्थ नहीं होता है । इस कलाकृति का आयाम मात्र रूपंकर है, हालांकि इनकी हाल की कलाकृति में हम एक सकारात्मक तात्त्विकता को प्रवेश करते हुए देखते हैं ।
राजकुमार ने सूक्ष्म ग्रे और हरे रंग में एक जीवन्त भूदृश्यांकन चित्रित किया है । स्वर शैली की लय और आड़ी तिरछी रेखाएं उड़ान के मूलभूत भाव से भी अधिक अभिव्यक्ति देती है । रामकुमार प्रारम्भ में एक प्रतीकात्मक रंगचित्रकार थे । इसके पश्चात इन्होंने गम्भीरता से भूदृश्यांकन को अपनाया जहां से वे इन साकार मानवरहित उड़ानों की गैर वस्तुनिष्ठात्मकता की वास्तविकता आस्वादन करते हैं ।
सुविख्यात मूर्तिकार डी पी राय चौधरी की एक महत्त्वपूर्ण चिरस्थायी कलाकृति को श्रम की विजय कहते हैं । पुरुषों के सुदृढ़ मांसल शरीर जो ढुलाई कर रहे हैं उनकी जीवन से संचारित मुद्राएं इसे एक अत्यधिक अर्थपूर्ण कलाकृति बनाते हैं । वास्तव में यह कहा जा सकता है कि श्री राय चौधरी का संबंध अभिव्यंजनावादी शैली से है ।
एक बिल्कुल भिन्न मनोदशा में लेकिन एक समान रूप से साकार कार्य रामकिंकर बैज द्वारा एक युवा महिला की एक तरणशील अर्द्धप्रतिमा है । कांतिमय युवा चेहरा और भरपूर वक्षस्थल जीवन शक्ति का प्रतीक है । मूर्तिकला की दृष्टि से कहें तो संरचना अत्यधिक साकार तथा ऊर्जा से परिपूर्ण है ।
बी विट्ठल द्वारा एक दार्शनिक की व्याख्या उच्च कोटि की है जिसमें उन्होंने नाक, आधे खुले नेत्रों, कान की लम्बी बालियों आदि जैसी आकृति के माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्ति दी है ।
मूर्तिकार शंखो चौधरी स्वयं को संवारती हुई एक महिला की मूर्ति में शारीरिक गुणों पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रीति से बल देते हैं । उठी हुई बाजू प्रवाहित रूपरेखाएं, गोल मनोहारी रूप यौवन में पुन: वृद्धि करते हैं ।
मूर्तिकला के मामले में बहुधा सामग्री मूलभूत औपचारिक संकल्पना का निर्धारण करती है जैसा कि राघव कनेरिया ने अपने वृषभ में किया है । ऊर्जा और पशुबल से परिपूर्ण वृषभ आक्रमण करने के लिए तैयार है । रूपरेखाएं संचलन पर बल देती हैं ।
दाविरवाला द्वारा एक व्यक्ति की मूर्ति की संकल्पना को पूर्णतया भिन्न स्तर पर ले जाया गया है । जीवन्त चेहरा और उठे हुए बाजू इसे आलौकिक असाधारण विशेषता प्रदान करते हैं । अनिवार्य तत्त्वों को न्यूनतम स्तर तक कम करने का एक प्रयास किया गया है । धातु की विशेषता पर बल दिया गया है ।
महेन्द्र पांडेय एक मूर्ति में पत्थर की मात्र एक ठोस द्रव्यमान के रूप में कल्पना करते हैं तथा दो आकृतियों के बारे में सुझाव देते हैं । जैसा कि पत्थर के मामले में होना चाहिए इस खड़ी मूर्ति में द्रव्यमान और परिमाण पर बल दिया गया है ।
नदी के किनारे पर एक दम्पति द्वारा बाँस से मछली पकड़ने का एक साधारण ग्रामीण दृश्य हरेन दास की एक प्रारंभिक कलाकृति है जो परम्परागत और स्पष्टता से दर्शायी गयी है । यह अपनी शैली में एक अति सूक्ष्म कलाकृति है ।
सुनिर्मल चैटर्जी की ‘मनाली’ का एक गांव एक सीधी सादी परम्परागत कलाकृति है । यह अपनी सीमाओं में रहते हुए काष्ठचित्र के माध्यम से की गई संरचना विशिष्ट विशेषताओं से लाभ उठाती है ।
सोमनाथ होर का ‘जन्म’ एक स्वप्न दिखाता है । इस तरह असामान्य चित्रात्मक तत्वों के मिश्रण पर बल दिया जाता है । गुलाब स्वयं में सर्वाधिक प्रमुख है । यह एक उरेहन है और कलाकार अपने विषय के लिए उपयुक्त माध्यम की सभी संभावनाओं का लाभ उठाता है ।
दीपक बैनर्जी अध्ययन में सैद्धान्तिक रूप से इस गैरवस्तुनिष्ठ कलाकृति में उरेहन माध्यम से कुछ अधिक विशिष्ट प्रभावों को प्राप्त करते हैं । तीव्र रेखा, रंगबिरंगी संरचनाएँ, उत्कीर्णन, विविधता में एक निक्षारण की सभी उत्कृष्टता विद्यमान हैं ।