मणिपुरी नृत्य भारत के उत्तरी-पूर्वी भाग में स्थित राज्य मणिपुर में उत्पन्न हुआ । यह भारतीय शास्त्रीय नृत्यों की विभिन्न शैलियों में से प्रमुख नृत्य है । इसकी भौगोलिक स्थिति के कारण मणिपुर के लोग बाहरी प्रभाव से बचे रहे हैं और इसी कारण यह प्रदेश अपनी विशिष्ट परम्परागत संस्कृति को बनाये रखने में समर्थ है ।
मणिपुरी नृत्य का उद्भव प्राचीन समय से माना जा सकता है, जो लिपिबद्ध किये गये इतिहास से भी परे है । मणिपुर में नृत्य धार्मिक और परम्परागत उत्सवों के साथ जुड़ा हुआ है । यहां शिव और पार्वती के नृत्यों तथा अन्य देवी-देवताओं, जिन्होंने सृष्टि की रचना की थी, की दंतकथाओं के संदर्भ मिलते हैं ।
लाई हारोबा मुख्य उत्सवों में से एक है और आज भी मणिपुर में प्रस्तुत किया जाता है, पूर्व वैष्णव काल से इसका उद्भव हुआ था । लाई हारोबा नृत्य का प्राचीन रूप है, जो मणिपुर में सभी शैली के नृत्य के रूपों का आधार है । इसका शाब्दिक अर्थ है- देवताओं का आमोद-प्रमोद । यह नृत्य तथा गीत के एक अनुष्ठानिक अर्पण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है । मायबा और मायबी (पुजारी और पुजारिनें) मुख्य अनुष्ठानक होते हैं, जो सृष्टि की रचना की विषय-वस्तु को दोबारा अभिनीत करते हैं ।
15वीं सदी ईसवी सन् मे वैष्णव काल के आगमन के साथ क्रमश: राधा और कृष्ण के जीवन की घटनाओं पर आधारित रचनायें प्रस्तुत की गयीं । ऐसा राजा भाग्यचंद्र के शासन काल में हुआ, इसी समय मणिपुर के प्रसिद्ध रास-लीला नृत्यों का प्रवर्तन हुआ था । यह कहा जाता है कि 18वीं सदी के इस दार्शनिक राजा ने एक स्वप्न में इस सम्पूर्ण नृत्य की उसकी विशिष्ट वेशभूषा और संगीत सहित कल्पना की थी । क्रमिक शासकों के तहत् नई लीलाओं, तालों और रागात्मक रचनाओं की प्रस्तुती की गयी ।
मणिपुरी नृत्य का एक विस्तृत रंगपटल होता है, तथापि रास, संकीर्तन और थंग-ता इसके बहुत प्रसिद्ध रूप हैं । यहां पांच मुख्य रास नृत्य हैं, जिनमें से चार का सम्बन्ध विशिष्ट ऋृतुओं से है । जबकि पांचवां साल में किसी भी समय प्रस्तुत किया जा सकता है । मणिपुरी रास में राधा, कृष्ण और गोपियां मुख्य पात्र होते हैं ।
विषय-वस्तु बहुधा राधा और गोपियों की कृष्ण से अलग होने की व्यथा को दर्शाती है । रासलीला नृत्यों में परेंग या शुद्ध नृत्य क्रम प्रस्तुत किये जाते हैं । इसमें निर्दिष्ट लयात्मक भंगिमाओं और शरीर की गतिविधियों का अनुसरण किया जाता है, जो परम्परागत रूप से अनुसरणीय होते हैं । रास की वेशभूषा में प्रचुर मात्रा में कशीदा किया गया एक सख्त घाघरा शामिल होता है, जो पैरों पर फैला होता है ।
इसके ऊपर महीन मलमल का एक घाघरा पहना जाता है । शरीर का ऊपरी भाग गहरे रंग के मखमल के ब्लाऊज से ढका रहता है और एक परम्परागत घूँघट एक विशेष केश-सज्जा के ऊपर पहना जाता है, जो मनोहारी रूप से चेहरे के ऊपर गिरा होता है । कृष्ण को पीली धोती, गहरे मखमल की जाकेट और मोरपंखों का एक मुकुट पहनाया जाता है । इनके अलंकरण उत्कृष्ट होते हैं और उनकी बनावट प्रदेश की विशष्टिता लिये होती है ।
सामूहिक गान का कीर्तन रूप नृत्य के साथ जुड़ा हुआ है, जिसे मणिपुर में संकीर्तन के रूप में जाना जाता है । पुरुष नर्तक नृत्य करते समय पुंग और करताल बजाते हैं । नृत्य का पुरुषोचित पहलू- चोलोम, संकीर्तन परम्परा का एक भाग है । सभी सामाजिक और धार्मिक त्यौहारों पर पुंग तथा करताल चोलोम प्रस्तुत किया जाता है ।
मणिपुर का युद्ध-संबंधी नृत्य- थंग-ता उन दिनों उत्पन्न हुआ, जब मनुष्य ने जंगली पशुओं से अपनी रक्षा करने के लिए अपनी क्षमता पर निर्भर रहना शुरू किया था ।
आज मणिपुर युद्ध-संबंधी नृत्यों, तलवारों, ढोलों और भालों का उपयोग करने वाले नर्तकों का उत्सर्जक तथा कृत्रिम रंगपटल है । नर्तकों के बीच वास्तविक लड़ाई के दृश्य शरीर के नियंत्रण और विस्तृत प्रशिक्षण को दर्शाते हैं ।
मणिपुरी नृत्य में तांडव और लास्य दोनों का समावेशन है और इसकी पहुंच बहुत वीरतापूर्ण पुरुषोचित पहलू से लेकर शांत तथा मनोहारी स्त्रीयोचित पहलू तक है । मणिपुरी नृत्य की एक दुर्लभ विशेषता है, जिसे लयात्मक और मनोहारी गतिविधियों के रूप में जाना जाता है । मणिपुरी अभिनय में मुखाभिनय को बहुत ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता- चेहरे के भाव स्वाभाविक होते हैं और अतिरंजित नहीं होते । सर्वांगाभिनय या सम्पूर्ण शरीर का उपयोग एक निश्चित रस को संप्रेषित करने के लिए किया जाता है, यह इसकी विशिष्टता है ।
लयात्मक समूहों में आमतौर पर देखा जाता है कि नर्तक एक नाटकीय प्रदर्शन में पैरों से ताल देने के लिए घुंघरू नहीं पहनते, संवेदनशील शरीर की गतिविधियों के साथ इसका ज्यादा महत्व नहीं है । जबकि मणिपुरी नृत्य और संगीत एक उच्च विकसित ताल तंत्र है ।
मणिपुरी गायन की शास्त्रीय शैली को नट कहा जाता है, जो उत्तर तथा दक्षिण भारतीय संगीत- दोनों से बहुत अलग है, यह शैली निश्चित प्रकार के स्वर-कम्पन और अनुकूलन सहित उच्च स्वरमान के साथ जल्दी पहचानी जा सकसती है । मुख्य संगीत वाद्य पुंग या मणिपुरी शास्त्रीय ढोल है । यहां ढोलों की अन्य बहुत सी किस्में भी हैं, जो मणिपुरी संगीत और नृत्य में प्रयोग में लाई जाती हैं । पेना, एक तारदार वाद्य, लाई हारोबा और पेना गायन में प्रयोग में लाया जाता है । रास और संकीर्तन में करताल की विविध किस्में प्रयोग की जाती हैं । स्वर-गायन के साथ बांसुरी का भी प्रयोग किया जाता है ।
जयदेव द्धारा रचित गीत-गोविन्दा की अष्टपदियां बहुत प्रचलित हैं और इन्हें मणिपुर में बहुत धर्मोत्साह के साथ गाया जाता है तथा नृत्य किया जाता है ।
रास और अन्य लीलाओं के अलावा हरेक व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक चरण को संकीर्तन प्रस्तुतीकरण के साथ मनाया जाता है । बच्चे के जन्म, उपनयन, विवाह और श्राद्ध इन सभी अवसरों के लिए मणिपुर में नृत्य और गायन किया जाता है । सम्पूर्ण समुदाय दैनिक जीवन के अनुभवों के हिस्से के रूप में नृत्य व गायन में भाग लेता है ।