कुचीपुड़ी भारतीय नृत्य की एक पारंपरिक शैली है । इस शताब्दी के तीसरे व चौथे दशक के आसपास यह नृत्य-शैली इस नाम के नृत्य-नाटक की लंबी तथा समृद्ध परंपरा से उद्भूत हुई ।
दरअसल, आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में कुचीपुड़ी नाम गांव है । यह विजयवाड़ा से 35 कि.मी. की दूरी पर स्थित है । आंध्र प्रदेश में नृत्य-नाटक की एक लंबी परंपरा चली आ रही है, जिसे यक्षगान के जातिगत नाम से जाना जाता था । 17वीं शताब्दी में एक प्रतिभाशाली वैष्णव कवि तथा द्रष्टा सिद्धेन्द्र योगी ने यक्षगान के रुप में कुचीपुड़ी शैली की कल्पना की, जिनमें अपनी कल्पनाओं को मूर्ति एवं साकार रूप प्रदान करने की अद्भुत क्षमता थी । संस्कृत में कृष्ण-लीला-तरंगिणी नामक काव्य के रचयिता, अपने गरु तीर्थनारायण योगी द्वारा मार्गदर्शन प्राप्त कर, सिद्धेन्द्र योगी यक्षगान की साहित्यिक परंपरा में तल्लीन हो गए ।
ऐसा कहा जाता है कि सिद्धेन्द्र योगी ने एक स्वप्न देखा कि भगवान कृष्ण उनसे अपनी सर्वाधिक प्रिय रानी सत्यभामा हेतु पारिजात लाने की पुराणकथा पर आधारित एक नृत्य नाटक की रचना करने का अनुरोध कर रहे हैं । इस अनुरोध का अनुपालन करते हुए सिद्धेन्द्र योगी ने उत्साहित होकर भामाकलापम् की रचना की, जिसे आज भी कुचीपुड़ी रंगपटल का पीस-डी-रेसिसटेन्स माना जाता है । सिद्धेन्द्र योगी ने कुचीपुड़ी गांव क ब्राह्मण युवकों को अपनी रचनाओं, विशेषकर भामाकलापम् को प्रस्तत करने हेतु प्रोत्साहित किया । भामाकलापम् की प्रस्तुति एक आश्चर्यजनक सफलता थी । इसका सौन्दर्यपरक आकर्षण इतना व्यापक था कि तत्कालीन गोलकुण्डा के नवाब अब्दुल हसन तनीशाह ने 1675 में एक ताम्र पट्टिका जारी कर इस कला को खोजने वाले ब्राह्मण परिवारों को आग्रहाम् स्वरूप कुचीपुड़ी गांव भेंट्स्वरूप दे दिया । उस समय सभी अभिनेता पुरुष ही थे और उनके द्वारा प्रस्तुत स्त्री-पात्र-प्रतिरूपण श्रेष्ठ होता था । स्त्री-पात्र-प्रतिरूपण या अवतार-धारण के उच्च स्तर को सत्यभामा की भूमिका निभाने वाले वेदांतम् सत्यनारायण शर्मा का उदाहरण देखा जा सकता है ।
सिद्धेन्द्र योगी क अनुयायियों अथवा शिष्यों ने कई नाटकों की रचना की और आज भी कुचीपुड़ी नृत्य-नाटक की परंपरा विद्यमान है । इस शैली में एकल नृत्य-प्रस्तुति व स्त्री नर्तकियों के प्रशिक्षण सहित अनेक नए तत्त्वों का समावेश (1886-1956) लक्ष्मी नारायण शास्त्री ने किया । पहले भी एकल नृत्य-प्रस्तुति विद्यमान थी, पर वह केवल समुचित क्रमों में नृत्य-नाटकों के एक भाग के रूप में थी । कभी-कभी तो नाटक की प्रस्तुति में आवश्यकता न होने पर भी, अनुरोध अथवा आग्रह में वृद्धि करने तथा प्रस्तुति को बीच में रोकने हेतु एकल नृत्य प्रस्तुति की जाती थी । तीर्थनारायण योगी की कृष्ण-लीला-तरंगिणी से प्रेरित तरंगम् ऐसी ही प्रस्तुति है ।
शरीर संतुलन व पादकौशल तथा उसके नियंत्रण में नर्तक कलाकारों की दक्षता प्रदर्शित करने हेतु पीतल की थाली की किनारी पर नृत्य करना तथा सिर पर पानी से भरा घड़ा लेकर नृत्य करने जैसी कुशलताओं को जोड़ा गया । इस शताब्दी के मध्य तक कुचीपुड़ी नृत्य शैली एक सर्वथा स्वतंत्र शास्त्रीय एकल नृत्य शैली के रूप में पूर्णत: स्थापित हो गई । इस प्रकार, अब कुचीपुड़ी नृत्य की दो शैलियां हैं: नृत्य-नाटक तथा एकल नृत्य-प्रस्तुति ।
इस शताब्दी के चौथे दशक के उत्तरार्द्ध से एकल प्रस्तुति के क्रम का तेजी से विस्तार हुआ । कुचीपुड़ी नृतय-प्रस्तुति, एक प्रार्थनामयी प्रस्तति से आरंभ होती है, जैसा कि अन्य शास्त्रीय नृत्य शैलियों में होता है । पहले प्रार्थना या आह्वान केवल गणेश वंदना तक ही सीमित था । अब अन्य देवताओं का भी आह्वान किया जाता है । तत्पश्चात् अवर्णनात्मक तथा काल्पनिक नृत्य अर्थात् नृत्त प्रस्तुति होती है । अक्सर जतिस्वरम् को नृत्त के ही रूप में प्रस्तुत किया जाता है । इसके बाद शब्दम् नामक वर्णनात्मक प्रस्तुति की जाती है । परंपरागत लोकप्रिय शब्दम् प्रस्तुति में से एक है- दशावतार । शब्दम् के बाद नाट्य-प्रस्तुति स्वरूप कलापम् प्रस्तुत किया जाता है । अनेक परंपरागत नर्तक कलाकार, भामाकलापम् नाम परंपरागत नृत्य नाटक से सत्यभामा पात्र-प्रवेश को प्रस्तुत करना पसंद करते है । ‘भामणे, सत्यभामणे’ गीत तथा परंपरागत प्रवेश दारू (चरित्र विशेष के प्रवेश के समय प्रस्तुत किया जाने वाला गीत) इतना सुरीला व श्रुतिमधुर होता है कि उसका आर्कषण, व्यापक और सदाबहार प्रतीत होता है । इसी अनुक्रम में, तत्पश्चात् पदम्, जावली, श्लोकम् आदि साहित्यिक व संगीत स्वरूपों पर आधारित विशुद्ध नृत्याभिनय-प्रस्तुति की जाती है । ऐसी प्रस्तुति में गाए गए प्रत्येक शब्द को नृत्य की मुद्राओं द्वारा प्रस्तुत किया जाता है । इस प्रकार के नृत्य को उपयुक्तत: दृश्य-कवित्त (दृश्य-काव्य) कहा जा सकता है । सामान्यत: कुचीपुड़ी नृत्य-प्रस्तुति को तरंगम् प्रस्तुति के पश्चात् समाप्त किया जाता है । इस प्रस्तुति के साथ कृष्ण-लीला-तरंगिणी के उद्धरण गाए जाते हैं । इसमें अक्सर नर्तक कलाकार शकट-वदनम् पाद मुद्रा में पीतल की थाली पर पांवों को रखकर खड़ा रहता है (देखिए चित्र सं. 2 घ) और अत्यंत कुशलतापूर्वक लयात्मक रूप से थाली को घुमाता है ।
नृत्य प्रस्तुति के साथ संगत रूप में कर्नाटक संगीत की शास्त्रीय शैली सहित परिवर्तनीय आह्लादक प्रस्तुति की जाती है । गायकों के अतिरिक्त, अन्य संगत कलाकार भी होते हैं । ताल संगीत प्रस्तुत करने हेतु एक मृदंगम्-वादक, सुरीला वाद्यात्मक संगीत प्रदान करने हेतु एक वॉयलिन अथवा वीणा-वादक या दोनों, एक मंजीरा-वादक, जो अक्सर वाद्य वृंद का संचालन करता है और सोल्लुकट्टु (स्मरणोपकारी ताल के बोल) का उच्चारण करता है ।