लगभग 100 वर्ष बाद पूना जिले में कर्ले में एक अन्य गुफा का उत्खनन किया गया जिसमें एक विशाल प्रार्थना कक्ष या चैत्य सामने आया । इसका उत्खनन भी एक चट्टान से किया गया है जो अपने विशाल और उन्नत आकार के कारण अद्वितीय है । 124’ X 46- ½’ X 45’ आकार वाली यह गुफा निश्चित रूप से विशालकाय है । इसके विशाल और बृहदाकार स्तंभों के शीर्ष अनूठे हैं । इनपर टिकी मेहराबी छतों पर लकड़ी की असली कडियां डाली गई हैं और इसपर लगी पट्टियां लकड़ी की इमारतों की नकल है । मज़बूत और बृहदाकार स्तंभों के शीर्ष पर मूर्तियां बनाई गई हैं । कुछ ही दूरी पर बने एक स्तूप पर बने लकड़ी के छत्र की लकड़ी आज भी आश्चर्यजनक रूप से वैसी ही है ।
अर्धगोलाकार गुंबद वाला बौद्ध स्तूप वास्तुकला का एक अन्य उदाहरण है जिसके ठोस होने के कारण उसमें कोई प्रवेश नहीं कर सकता । स्तूप अंत्येष्टि के लिए बनाए गए महिमामंडित, सज्जित और परिवद्धित टीले हैं जहां पर कभी किसी पवित्र व्यक्ति की हड्डियां और अस्थियां रखी गईं थीं । परंपरानुसार भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद सम्राट अशोक ने समस्त राज्य में भगवान बुद्ध की स्मृति में विशाल संख्या में स्तूपों का निर्माण करवाया जिनमें उनकी हड्डियों के टुकड़े, दांत, केश इत्यादि अवशेषों को प्रतिष्ठापित किया गया । मूलत: स्तूप का निर्माण ईंट से कर उसके चारों ओर लकड़ी का घेरा बनाया गया । सांची में मूल स्तूप वर्तमान स्तूप के भीतर है । वर्तमान स्तूप का विस्तार कर उसके इर्द-गिर्द पत्थर का घेरा या जंगला बनाया गया । अब लकड़ी के स्थान पर पत्थर का प्रयोग किया जाने लगा था । स्तूप, जो कि एक गुंबदाकार ढांचा था, को ईसा पूर्व । शताब्दी में एक आधार दिया गया जो कि कभी गोलाकार तो कभी आयताकार होता था । इसमें एक प्रदक्षिणा पथ, पत्थर का घेरा और चार दिशाओं में चार सुरुचिपूर्ण नक्काशी वाले प्रवेशद्वार बनाए गए । समय के साथ, भगवान बुद्ध या उनके निकटतम अनुयायियों की अस्थियों के ऊपर बनाए गए लकड़ी के मूल छत्र, जो स्तूप का परिचायक था, का स्थान गुंबद के ऊपर एक नई वस्तु, हार्मिक ने ले लिया जो राजसी भव्यता का परिचायक था । यह एक आयताकार बौद्ध जंगला है जिससे निकले एक स्तंभ पर राजसी छत्र बना है जो संख्या में कभी एकल और बाद में तीन या उससे ज्यादा भी हो सकते हैं । ऊपर की ओर बढ़ते हुए इनका आकार छोटा होता जाता है ।
उत्तर में भरहुत , सांची और बोध गया और दक्षिण में अमरावती और नागार्जुनकोंडा के बाड़े और प्रवेशद्वार सबसे प्रसिद्ध् हैं । ऊर्ध्वाधर स्तंभ और अर्गला जो लकड़ी की इमारतों पर आधारित थे, के निर्माण ने उत्कृष्ट निचली उभार नक्काशी वाले गुंबदों को प्रोत्साहन दिया । इन सतहों पर बौद्ध धर्म के मनपसंद चिह्न-कमल, हाथी, वृष, शेर और घोड़े तथा बुद्ध के पूर्व जन्मों की कुछ जातक कथाएं निचले उभार में इतनी बारीकी से उकेरी गई हैं कि इन्हें भारतीय कला के इतिहास में मील का पत्थर कहा जा सकता है । सांची स्तूप का व्यास 120’ और ऊँचाई 54’ है । इन प्रवेश द्वारों के बारे में यह कहा जा सकता है कि अधिकांश प्रारंभिक भारतीय वास्तुकला लकड़ी और इमारती लकड़ी की बनी थी और ये प्रारंभिक काष्ठ इमारतों की पत्थर पर वास्तविक अनुकृति हैं ।