प्रशिक्षण कार्यक्रम के लगभग सभी दिन प्रतिभागियों द्वारा ‘‘भारतीय संस्कृति में क्षेत्रीय योगदान’’ विषय पर एक लघु गतिविधि से आरम्भ होते हैं ।
कला एवं संस्कृति के सैद्धांतिक अध्ययन पर आयोजित सत्रों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जाता है :
भारतीय कला एवं संस्कृति की वैचारिक और दार्शनिक अवधारणाओं तथा उनमेंनिहित सौन्दर्यात्मकता का अध्ययन । सचित्र व्याख्यानों में भारतीय कला और यहां के निवासियों के 5000 वर्ष पुराने इतिहास पर प्रकाश डाला जाता है । इन व्याख्यानों द्वारा समय और स्थान में व्याप्त अखंडता और एकता को दिखाने तथा यह दर्शाने का प्रयास किया जाता है कि लोग सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के माध्यम से किस प्रकार जुड़े हुए हैं ।
भारत की प्राकृतिक सम्पदा का अध्ययन:
भारतीय वास्तुशिल्प एवं मूर्तिकला का अध्ययन: – इन सचित्र व्याख्यानों में देश के सभी भागों में प्रचलित वास्तुकला तथा मूर्तिकला की विभिन्न शैलियों के इतिहास और विकास के बारे में जानकारी प्रदान की जाती है। इन व्याख्यानों में इन कला रूपों पर धर्मों, आस्थाओं व भौतिक विशेषताओं के प्रभाव पर भी चर्चा की जाती है ।
चित्रकला पर दिए जाने वाले व्याख्यानों में, प्रागैतिहासिक काल के प्राचीनतम गुफा चित्रों, सचित्र पांडुलिपियों लघुचित्रों की विभिन्न शैलियों तथा चित्रकला की समकालीन शैलियों में हुए कला के विकास का वर्णन किया जाता है ।
भारतीय भाषाओं एवं साहित्य पर दिए जाने वाले व्याख्यानों में प्राचीन साहित्यिक रचनाओं, लिपियों, बोलियों एवं काव्य पर प्रकाश डाला जाता है तथा मौखिक परम्पराओं के बारे में बताया जाता है, जिन्होंने युगों में मिथकों और दंत कथाओं को जीवित रखा है ।
इन व्याख्यानों में समकालीन लेखकों और सभी राष्ट्रीय भाषाओं में उनके द्वारा किए गए योगदान पर भी सूचना दी जाती है ।
लोक तथा आदिवासी संस्कृति पर दिए जाने वाले व्याख्यानों में पारम्परिक भारतीय संस्कृति तथा भारत के विभिन्न भागों में पाए जाने वाले आदिवासियों की जीवन शैली पर चर्चा की जाती है ।
पारम्परिक नाट्यकलाओं पर दिए जाने वाले व्याख्यानों में क्षेत्रीय विभिन्न्ताओं पर प्रकाश डाला जाता है । हिन्दुस्तानी एवं कर्नाटिक संगीत तथा लोक एवं आदिवासी संगीत के गायन और वादन की विभिन्न शैलियों के रचनात्मक रूपों पर प्रदर्शनात्मक व्याख्यान, सम्बंधित कला शैलियों से जुड़े मूलभूत तथ्य, सूक्ष्म भेद तथा कुछ आवश्यक परिभाषाओं सहित एक संक्षिप्त ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं ।
भारत के शास्त्रीय नृत्यों पर दिए जाने वाले व्याख्यान प्रदर्शनों में भारतीय नृत्यों का भरतमुनि के नाट्य शास्त्र से लेकर वर्तमान रूप में हुए विकास का वर्णन किया जाता है ।
मन एवं शारीरिक कौशल में सामंजस्य स्थापित करने वाली रचनात्मक प्रक्रिया का स्वयं अनुभव करने पर कला के प्रति आदर उपजता है एवं रसिक, गुणवंत बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है । अनुस्थापन प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेने वाले प्रत्येक प्रतिभागी से यह आशा की जाती है कि वह इन आयोजित कक्षाओं में तीन या चार शिल्प कलाओं की बुनियादी कुशलताओं को प्रदत्त समयावधि में ग्रहण करें जिन्हें विद्यालयों में सरलता से सिखाया जा सके । सम्बद्व क्षेत्रों के कलाकारों तथा विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में ये व्यवहारिक एवं प्रायोगिक कक्षाएं आयोजित की जाती हैं, उनमें से कुछ हैं: मिट्टी के बर्तन बनाना, मृत्तिका शिल्प,बेंत की बुनाई, जिल्दसाजी, कागज के खिलौने बनाना, रंगोली तथा मुखौटे बनाना इत्यादि । प्रतिभागियों को उन्हीं प्रायोगिक कार्यों का प्रशिक्षण दिया जाता है जो सामग्री की उपलब्धता और उत्पादकता मूल्य की दृष्टि से भारतीय विद्यालयों के उपयुक्त हो ।
प्रतिभागियों को अन्य भारतीय भाषाएं सीखने तथा एक-दूसरे को समझने व आवश्यक सौहार्द विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है,तथा प्रमुख राष्ट्रीय भाषाओं के गीत सिखाने हेतु प्रायोगिक कक्षाओं का आयोजन किया जाता है। एतदर्थ प्रमुख राष्ट्रीय भाषाओं के गीत सिखाने हेतु प्रायोगिक कक्षाओं का आयोजन भी किया जाता है। इसी प्रकार शिक्षक की कल्पना शक्ति और संप्रेषण क्षमता विकसित करने के लिए मूकाभिनय में व्यावहारिक एवं प्रायोगिक प्रशिक्षण देने के लिए सत्र आयोजित किए जाते हैं। इस प्रकार नाटक की धारणाओं की समझ में अधिकाधिक वृद्धि करके प्रतिभागियों की नाट्यकार और शिक्षा में इसकी भूमिका को भली-भांति समझने में मदद की जाती है।
परियोजना क्रियान्वयन कार्यों द्वारा उच्च ज्ञानात्मक कुशलता को सिखाया और परखा जा सकता है तथा यह ज्ञान प्रणाली महत्वपूर्ण उत्प्रेरक सिद्ध होने के साथ विकल्प और उत्तरदायित्व की भावना प्रदान करती है । यद्यपि इसका उन्मुक्त प्रयोग और इस माघ्यम के शिक्षण में पाया जाने वाला लचीलापन प्राय: एक समस्या माना जाता है, क्योंकि इस प्रकार का अघ्ययन पारम्परिक तौर पर, धनिष्ठ निरीक्षण में आवश्यक माना जाता है । अनुस्थापन प्रशिक्षण कार्यक्रम में प्रतिभागियों को सिखाया जाता है कि विद्यार्थियों में सर्वाधिक प्रभावशाली ढंग से प्रेरणा का संचालन करने के लिए परियोजनाओं का निर्माण किस प्रकार किया जाता है, जिनमें कक्षा संबंधी अध्यापन में सांस्कृतिक तत्वों को अन्तर्निहित करने के लिए प्रतिभागी अकेले या अधिकतर समूहों में विषयक परियोजनाओं पर कार्य करते हैं और शिक्षा संबंधी सहायक सामग्री, खेल चार्ट, अभ्यास योजनाएं, इत्यादि तैयार करते हैं । प्रतिभागियों द्वारा चुने गए विषयों और प्रसंगों पर वास्तव में परियोजनाएं तैयार करने से पूर्व, विस्तार से चर्चा की जाती है, जिनका प्रयोग इन शिक्षकों द्वारा अपने विद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले विषयों को सांस्कृतिक शिक्षा के साथ जोड़ने के लिए किया जा सके । शिक्षक छात्रों के लिए अपनी परियोजनाओं में अन्य संबंधित गतिविधियों के प्रयोग का भी सुझाव देते हैं ।
प्रशिक्षण कार्यक्रम में सफल प्रतिभागिता के बाद विद्यालय को इस शैक्षिक किट की सामग्री के प्रयोग पर नियमित रूप से सत्रों का आयोजन किया जाता है, जिनमें प्रतिभागी किसी प्रसंग विशेष या विषय पर स्लाइड प्रदर्शनों का उद्देश्य अध्यापकों में कलारूपों की समझ एवं रचनात्मकता को प्रोत्साहित करना है तथा यह विभिन्न विषयों के अध्यापन में सांस्कृतिक तत्वों को समाहित करने की और पहला कदम है ।
दृश्य-श्रृव्य उपकरणों के प्रयोग पर सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केन्द्र द्वारा प्रायोगिक कक्षाओं के सत्र आयोजित किए जाते हैं,जिनमें प्रतिभागियों को इन उपकरणों के प्रयोग करने का तरीका सिखाया जाता है ।
अनुस्थापन प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान प्रतिभागियों हेतु राष्ट्रीय संग्रहालय, राष्ट्रीय प्राकृतिक विज्ञान संग्रहालय, शिल्प कला संग्रहालय, इत्यादि संग्रहालयों के शैक्षणिक भ्रमण आयोजित किए जाते हैं । इन भ्रमणों का उद्देश्य संग्रहालयों में उपलब्ध संसाधनों का अध्ययन करना तथा यह जानना है कि इनका प्रयोग विद्यार्थियों के दृष्टिकोण को व्यापक बनाने के लिए किस प्रकार किया जा सकता है । प्रत्येक शैक्षिक भ्रमण के दौरान इन तथ्यों पर बल दिया जाता है कि संग्रहालयों/ऐतिहासिक स्मारकों का प्रयोग ‘शिक्षण केन्द्रो’ के रूप में किया जाना चाहिए । वर्कशीट्स के माध्यम से प्रतिभागियों की टिप्पणियों को संग्रहालय की किसी एक वस्तु तक भी यदाकदा परिसीमित कर दिया जाता है ताकि वे अपने विद्यार्थियों के साथ इन स्थानीय शिक्षण केन्द्रों (संग्रहालय/ऐतिहासिक स्मारकों) के दौरों में इसी प्रकार की वर्कशीट्स तैयार कर सकें । चिड़ियाघरों और ऐतिहासिक स्मारकों की शैक्षणिक यात्राओं के माध्यम से प्राकृतिक तथा सांस्कृतिक संपदा के सरंक्षण में विद्यार्थियों की भूमिका तथा महत्व दर्शाने का प्रयास किया जाता है । समय उपलब्धता होने पर कला दीर्घाओं और सांस्कृतिक प्रदर्शनियों के दौरों का भी आयोजन किया जाता है ताकि प्रतिभागी समकालीन कला के स्वरूप एवं विकास को प्रत्यक्ष रूप से जान सकें।
सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केन्द्र द्वारा आयोजित प्रत्येक प्रशिक्षण कार्यक्रम में सन्निहित मूल्यांकन, कार्यक्रम का एक अनिवार्य घटक हैं । .
अनुस्थापन प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में प्रतिभागियों द्वारा कार्यक्रम के विभिन्न मापकों के बतौर आवर्तिक मूल्यांकन किया जाता है । प्रत्येक अनुस्थापन प्रशिक्षण कार्यक्रम में एक समेकित मूल्यांकन भी किया जाता है । प्रत्येक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम के दौरान तीन या चार मूल्यांकन सत्र आयोजित किये जाते हैं ।
प्रशिक्षणार्थियों को एक संरचनात्मक प्रश्नावली दी जाती है, ताकि वे प्रशिक्षण कार्यक्रम की विषयवस्तु के विभिन्न पहलुओं पर अपना दृष्टिकोण अभिव्यक्त कर सकें । प्रशिक्षण कार्यक्रमों के दौरान अर्जित ज्ञान के मूल्यांकन के लिए औपचारिक और अनौपचारिक मूल्यांकन की विभिन्न तकनीकों को लागू किया जाता है
प्रशिक्षण कार्यक्रमों के दौरान सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केन्द्र द्वारा महत्वपूर्ण राष्ट्रीय दिवसों से जुड़ी हुई गतिविधियों का भी आयोजन किया जाता है जैसे 25 जनवरी भारतीय पर्यावरण दिवस, 26 जनवरी गणतन्त्र दिवस, 30 जनवरी शहीदी दिवस, 8 मार्च महिला दिवस, 22 मार्च विश्व जल दिवस, 18 अप्रैल विश्व विरासत दिवस, 23 अप्रैल विश्व पुस्तक दिवस, 18 मई अन्तर्राष्ट्रीय संग्रहालय दिवस, 05 जून विश्व पर्यावरण दिवस, 08 जून विश्व महासागर दिवस, 06 अगस्त हिरोशिमा मृतकों को श्रद्धांजलि दिवस, 15 अगस्त स्वतन्त्रता दिवस, 05 सितम्बर शिक्षक दिवस, 08 सितम्बर विश्व साक्षरता दिवस, 02 अक्तूबर गांधी जयन्ती,01 दिसम्बर विश्व एड्स निवारण दिवस, इत्यादि।
गतिविधियों से सामूहिक स्वामित्व की संस्कृति एवं आपसी सहिष्णुता का पोषण होता है तथा सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केन्द्र उस ज्ञान में सामूहिक स्वामित्व का पोषण करता है, जो इस प्रकार की गतिविधियों के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है । जब प्रतिभागी विभिन्न सांस्कृतिक अनुसंधान परियोजनाओं या व्याख्यान प्रदर्शनों में भाग लेते हैं तो उन्हें न केवल भिन्न- भिन्न संस्कृतियों से परिचित कराया जाता है, अपितु गुण- दोष विवेचन व सहनशीलता के साथ- साथ सशक्तिकरण का अनुभव भी सम्भव हो पाता है ।
स्वतंत्र विचार को पोषित करते हुए तथा क्रियाशीलता के माध्यम से शिक्षक- प्रशिक्षणार्थियों को सशक्तिकरण का अंतिम घटक उपलब्ध करने के लिए जीवन, संस्कृति, अर्थनीति, शिक्षा में रचनात्मक संलग्नता के द्वारा एक मंच भी प्रदान किया जाता है ।